Atmadharma magazine - Ank 218
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म: २१८
स्वभाव साथे भळीने एकरस थई गयो.–आवा एकरसपणे चैतन्यना शांतरसनो निर्विकल्प अनुभव थयो,
तेमां बधुंय समाई जाय छे; आखोय आत्मा अने आत्माना बधाय धर्मो तेमां समाई गया.
धर्मात्माने चैतन्यना रसनुं ज रसिकपणुं थयुं छे, ए सिवाय जगतना कोई पदार्थनो तेने रस नथी,
प्रीति नथी; विकल्पनो पण तेने रस नथी. निर्विकल्प उपयोग वडे परम वीतरागी विज्ञानरस स्वादमां
आव्यो तेनो ज धर्मीने रस लाग्यो छे...तेथी कह्युं छे के:–
अनुभव चिंतामणि रतन अनुभव है रसकूप
अनुभव मारग मोक्षको अनुभव मोक्षस्वरूप.
उपयोग अंतर्मुख थईने ज्यां चैतन्यना पूरमां भळ्‌यो त्यां ज्ञाननो प्रवाह ज्ञानमां ज वळ्‌यो....ए
प्रवाह वेगपूर्वक वधीने केवळज्ञान थाय छे. ए प्रवाहमां अनंत गुणोना निर्मळ परिणमननो साथ छे. ज्ञान
ज अंतर्मुखपणे ज्ञानने वधारतुं जाय छे, बहारमां कोईनुं अवलंबन नथी. पोते पोताना स्वालंबनथी ज
पोतामां लीन थतुं जाय छे. आवी अनुभवी धर्मात्मानी दशा छे: ते विकल्पना अकर्तापणे शोभे छे ने अबंध
ज रहे छे.
* * * * *
जे जाणे छे ते जाणे ज छे :
जे करे छे ते करे ज छे.
जे विकल्पनो कर्ता थाय छे ते केवळ विकल्पने करे ज छे; ते कर्ता थईने विकल्पने ज रचे छे पण
मोक्षमार्गने जरा पण रचतो नथी; अरे, विकल्पना कार्यथी जुदा ज्ञानने जाणतो पण नथी. अने जे ज्ञानी
भेदज्ञानवडे ज्ञान अने रागने भिन्न भिन्न जाणे छे ते केवळ जाणे ज छे, ते विकल्पने जरापण करतो नथी.
सम्यग्द्रष्टिने जेटले अंशे सम्यग्दर्शनादि छे तेटला अंशे अबंधपणुं छे, ने जेटला अंशे रागादि छे तेटला अंशे
बंधन छे–एम कह्युं, पण तेनो अर्थ एम नथी के सम्यग्द्रष्टिने ते रागादिनुं कर्तृत्व छे. धर्मी तो जाणनार ज
रहे छे. ज्ञानभावनो ज कर्ता थईने परिणमतो थको विकल्पना अंश मात्रने ज्ञान साथे एकमेक करतो नथी;
ज्ञानी ज्ञानपणे ज रहे छे, विकल्पनो कर्ता थतो नथी. विकल्पने ज कार्य मानीने तेना कर्तृत्वमां जे अटक्यो ते
कदी आत्माने जाणतो नथी. अने जे आत्माने ज्ञानस्वभावी जाणे छे ते कदी विकल्पने करतो नथी. विकल्प
थाय ते ज्ञानथी बहारने बहार रहे छे. “ज्ञानीने राग छे” एम कहेवुं ते उपचार छे, ज्ञानीने तो ज्ञान ज छे,
ने राग तो तेने ज्ञेयपणे ज छे, ज्ञानना कार्यपणे नथी.
अहो, ज्ञाननी अंदर विकल्पनी क्रिया जरापण भासती नथी. अने विकल्पनी अंदर जाणवारूप क्रिया
जरापण भासती नथी. ज्ञान अने विकल्प बंनेनी जात ज जुदी; ज्ञानमां विकल्प नथी ने विकल्पमां ज्ञान
नथी. ज्ञाननी अतीन्द्रिय आनंदथी भरेली अनुभूति थई त्यां विकल्पनुं कर्तृत्व स्वप्नेय न रह्युं. शांतरसना
स्वाद पासे विकल्पनी आकुळताना स्वादने पोतानो केम जाणे? अने जे विकल्पना स्वादमां अटक्यो ते
चैतन्यना शांतरसने क््यांथी अनुभवे?
आ रीते ज्ञानी अने अज्ञानीनी परिणतिनी दिशा ज जुदी छे. ज्ञानी तो ज्ञाता ज छे ने विकल्पनो
कर्ता नथी; अने अज्ञानी विकल्पने ज करे छे पण ज्ञानना निर्विकल्पस्वादने अनुभवतो नथी.
ज्ञानी अने अज्ञानीना भिन्न भिन्न कार्यनी ओळखाण द्वारा आचार्यदेवे स्वभाव अने विभावनुं
भेद–