ज्ञान कराव्युं छे. ज्ञानीनुं कार्य ज्ञानमय ज छे, तेमां विकारनी किया नथी; अज्ञानीनुं कार्य रागमय छे,
तेमां निर्मळज्ञाननी क्रिया प्रतिभासती नथी. जडनी क्रियानी वात तो अहीं नथी, अहीं तो अंदरना
परिणामनी वात छे. ज्ञानीने केम ओळखवा? के ज्ञानक्रिया वडे ज्ञानीने ओळखवा; अने रागना
कर्तापणावडे अज्ञानीने ओळखी लेवो, अर्थात् जेना अभिप्रायमां रागनुं कर्तृत्व छे ते अज्ञानी ज छे–
एम समजवुं.
के व्यवहारने जे साधन माने, तेना अवलंबनथी मने हितप्राप्ति थशे–एम जे माने तेने तो निर्णयमां
ज भूल छे, तेनी तो शरूआत ज खोटी छे. हुं तो ज्ञान ज छुं, रागादिभावो मारा ज्ञानथी बाह्य छे
एवा द्रढ निश्चय वगर साचा प्रयत्ननी शरूआत पण थाय नहि. अहो, कर्ताकर्मअधिकार द्वारा
आचार्यदेवे एवी स्पष्ट वस्तु स्थिति समजावी छे के जो आत्मानो अर्थी थईने समजे तो अपूर्व
भेदज्ञान थया विना रहे नहि.
आश्रये ऊपजती ज्ञानक्रिया, अने परद्रव्यना आश्रये ऊपजती करोतिक्रिया–ए बंनेने जराय एकपणुं
नथी, अत्यंत भिन्नपणुं छे. रागथी लाभ पण माने अने ज्ञातापणे पण रहे–एम बनी शकतुं नथी,
केम के जे रागनो कर्ता थाय छे तेने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप ज्ञप्तिक्रिया होती नथी; अने जे ज्ञाता
छे ते विकारना कर्तापणे परिणमतो नथी. अरे, आवुं स्पष्ट भेदज्ञान...छतां अज्ञानी जीवो विकार साथे
कर्ताकर्मनी क्रियापणे केम परिणमे छे?–एमना अंतरमां मोह केम अत्यंत जोरथी नाची रह्या छे? जो
यथार्थ भेद समजे तो ते कर्ताकर्मपणुं रहे नहि. ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां चैतन्यशक्तिथी भरपूर अत्यंत
गंभीर ज्ञानज्योति उग्रपणे झळहळी ऊठी, तेमां विकारना कर्तृत्वरूप अंधकार क््यांय न रह्यो; अने कर्म
साथे निमित्त–नैमित्तिकपणुं पण छूटी गयुं. ज्ञान ज्ञानपणे ज परिणमवा लाग्युं...ने आत्माना
चिदानंदस्वरूपमां ज मुक्तपणे विलास करवा लाग्युं.