Atmadharma magazine - Ank 218
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४८८ : १७ :
ज्ञान कराव्युं छे. ज्ञानीनुं कार्य ज्ञानमय ज छे, तेमां विकारनी किया नथी; अज्ञानीनुं कार्य रागमय छे,
तेमां निर्मळज्ञाननी क्रिया प्रतिभासती नथी. जडनी क्रियानी वात तो अहीं नथी, अहीं तो अंदरना
परिणामनी वात छे. ज्ञानीने केम ओळखवा? के ज्ञानक्रिया वडे ज्ञानीने ओळखवा; अने रागना
कर्तापणावडे अज्ञानीने ओळखी लेवो, अर्थात् जेना अभिप्रायमां रागनुं कर्तृत्व छे ते अज्ञानी ज छे–
एम समजवुं.
जुओ, पहेलां शुं करवुं ते वात पण आमां आवी जाय छे. ‘हुं ज्ञानस्वभाव ज छुं’ एम पहेलां
निर्णय करवो.–ते निर्णय ज्ञान वडे ज थाय छे, विकल्प वडे ते निर्णय थतो नथी. विकल्पने–शुभरागने
के व्यवहारने जे साधन माने, तेना अवलंबनथी मने हितप्राप्ति थशे–एम जे माने तेने तो निर्णयमां
ज भूल छे, तेनी तो शरूआत ज खोटी छे. हुं तो ज्ञान ज छुं, रागादिभावो मारा ज्ञानथी बाह्य छे
एवा द्रढ निश्चय वगर साचा प्रयत्ननी शरूआत पण थाय नहि. अहो, कर्ताकर्मअधिकार द्वारा
आचार्यदेवे एवी स्पष्ट वस्तु स्थिति समजावी छे के जो आत्मानो अर्थी थईने समजे तो अपूर्व
भेदज्ञान थया विना रहे नहि.
ज्ञानक्रिया अने रागना कर्तापणारूप करोतिक्रिया–ए बंने अत्यंत जुदी छे; केवी जुदी?–के जे
स्वद्रव्य अने परद्रव्य अत्यंत भिन्न छे तेम ज्ञानक्रिया अने रागक्रिया अत्यंत भिन्न छे; स्वद्रव्यना
आश्रये ऊपजती ज्ञानक्रिया, अने परद्रव्यना आश्रये ऊपजती करोतिक्रिया–ए बंनेने जराय एकपणुं
नथी, अत्यंत भिन्नपणुं छे. रागथी लाभ पण माने अने ज्ञातापणे पण रहे–एम बनी शकतुं नथी,
केम के जे रागनो कर्ता थाय छे तेने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप ज्ञप्तिक्रिया होती नथी; अने जे ज्ञाता
छे ते विकारना कर्तापणे परिणमतो नथी. अरे, आवुं स्पष्ट भेदज्ञान...छतां अज्ञानी जीवो विकार साथे
कर्ताकर्मनी क्रियापणे केम परिणमे छे?–एमना अंतरमां मोह केम अत्यंत जोरथी नाची रह्या छे? जो
यथार्थ भेद समजे तो ते कर्ताकर्मपणुं रहे नहि. ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां चैतन्यशक्तिथी भरपूर अत्यंत
गंभीर ज्ञानज्योति उग्रपणे झळहळी ऊठी, तेमां विकारना कर्तृत्वरूप अंधकार क््यांय न रह्यो; अने कर्म
साथे निमित्त–नैमित्तिकपणुं पण छूटी गयुं. ज्ञान ज्ञानपणे ज परिणमवा लाग्युं...ने आत्माना
चिदानंदस्वरूपमां ज मुक्तपणे विलास करवा लाग्युं.
* * * * *
सिद्धपद तरफ...
चैतन्यने साधनारा समकिती संतो सिद्धपद तरफ जई रह्या छे,
ने चैतन्यनी विराधना करनारा जीवो निगोद तरफ जई रह्या छे. अरे!
निगोदना दुःखोनी शी वात? सातमी रौरव नरकना दुःख करतांय
निगोदनुं दुःख अनंतुं छे. एनुं वर्णन वचनथी न थाय. जेम एक तरफ
सिद्धनुं परम सुख–तेनुं पण वचनथी वर्णन न थाय, तेम निगोदनुं
महादुःख–तेनुं पण वचनथी वर्णन थई शके नहि. आवा दुःखोथी छूटवा
अने सिद्धसुखने पामवा हे जीव! सम्यक्त्व नौका वडे तुं सिद्धपद तरफ
जा...