Atmadharma magazine - Ank 219
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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पोष: २४८८ : ११ :
ते ज्ञानमय परिणाम छे, तेनी उत्पत्ति ज्ञानीने भेदज्ञानपूर्वक थाय छे; पण अज्ञानीने रागनुं कर्तृत्व छे, ते
रागमांथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी उत्पत्ति थती नथी. कर्ता अने कर्म एक जातना अभिन्न होय, अथवा
कारण अने कार्य एक जातना अभिन्न होय; अज्ञान कारण अने ज्ञान तेनुं कार्य, अथवा अज्ञानी कर्ता ने
ज्ञान तेनुं कर्म एम बनतुं नथी. तथा ज्ञानी कर्ता अने राग तेनुं कर्म के ज्ञान कारण अने राग तेनुं कार्य–
एम पण बनतुं नथी.
अहा, ज्ञानी अने अज्ञानीनी जात ज जुदी; बंनेना कार्यनी जात ज जुदी. अज्ञानीपणुं ते पर्याय छे;
ते केवुं छे? के अज्ञानमय छे; अज्ञानी पोते अज्ञानमय छे, तेथी तेना बधाय भावो अज्ञानजातने छोडता
नथी, अज्ञानमय ज होय छे, अने ज्ञानी पोते तो ज्ञानमय छे, तेना ज्ञानमयभावमांथी सर्व भावो ज्ञानमय
थाय छे, तेना कोई भावो ज्ञानजातने छोडता नथी.
ज्ञानी अशुभ वखतेय ज्ञानमय भावे परिणमे छे.
अज्ञानी शुभ वखतेय अज्ञानमयभावे परिणमे छे.
अहो, आ तफावत कई द्रष्टिथी ओळखशे! अज्ञानीने स्त्री आदिना अवलंबनवाळो अशुभभाव
पलटीने, देव–गुरुना अवलंबनवाळा शुभभाव थाय त्यां ते जाणे के मारा भावनी जात पलटी गई, आ
शुभ मने धर्ममां सहायक थशे,–पण अहीं कहे छे के भाई, तारा बधाय भावो अज्ञानमय ज छे, तारा
भावनी जात पलटी नथी. भेदज्ञान वगर परिणामनी जात पलटे नहि. रागना अवलंबने अबंधपरिणाम
कदी न थाय; अज्ञानीने रागना अवलंबननो अभिप्राय होवाथी तेना बधाय परिणाम बंधरूप ज छे, तेने
ज्ञानमय–अबंधपरिणाम थता नथी.
जेना अभिप्रायमां ज एम छे के, हुं–ज्ञानस्वरूप आत्मा तो कर्ता, ने राग मारुं कार्य, तेना
अभिप्रायमां ज ज्ञान अने रागनी एकत्वबुद्धि पडी छे; एवा अज्ञानमय अभिप्रायपूर्वक जे कांई परिणाम
थाय ते अज्ञानमय ज होय, पण ज्ञानमय न होय, एटले के बंधभाव ज होय, अबंधभाव जरा पण न होय.
अने तेथी ऊलटुं, जेने ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान वर्ते छे, रागना अंशमां पण स्वभावबुद्धि वर्तती
नथी ने ज्ञानस्वभावमां ज एकताबुद्धि वर्ते छे एवा ज्ञानीना जे कोई परिणाम होय ते बधाय ज्ञानमय ज
होय, अज्ञानमय न होय. बंधभावमां ज्ञानीने कदी एकता थाय नहि. रागपरिणामने ज्ञानी खरेखर
निजभाव (–स्वभावरूप भाव) मानता ज नथी, तेने पोताना स्वभावथी भिन्न ज जाणे छे. माटे राग ते
खरेखर ज्ञानीनुं कार्य छे ज नहि, पण ते राग वखते रागथी जुदुं रहीने तेने जाणनारुं जे ज्ञान, ते ज
ज्ञानीनुं कार्य छे, ते ज्ञानपरिणाम अबंध छे, ने ते ज्ञानपरिणाममां तन्मयपणे ज ज्ञानी ऊपजे छे.
शुक्ललेश्याना शुभ परिणाम होय तो पण ज्ञानी ते परिणामना कर्तापणे ऊपजता नथी; ते शुभ
परिणाम ज्ञाननी जात नथी. अज्ञानीने शुक्ललेश्याना परिणाम होय ते वखते पण ते अज्ञानमय भावने ज
करे छे, केम के शुक्ललेश्याना जे बंधपरिणाम तेमां ज ते ज्ञानने एकमेक माने छे, पण ते बंधपरिणामथी
रहित ज्ञानने जाणतो नथी. अने ज्ञानी तो आर्तध्यानना परिणाम वखतेय अबंधज्ञानभावे ज परिणमे छे,
आर्तध्यानमां ते तन्मय नथी परिणमता पण ज्ञानभावमां ज ते तन्मय परिणमे छे; माटे तेना भावो
ज्ञानमय ज छे. अंतर्मुखना अबंधपरिणामने बहिर्मुख–बंधपरिणाम साथे ते भेळवता नथी.
प्रश्न:– ज्ञानीने एक समयमां थोडोक आनंद अने थोडुंक दुःख बंने धारा साथे छे ने?
उत्तर:– खरेखर तो जे आनंदरूप ज्ञानभाव छे तेनुं ज ज्ञानीने कर्तृत्व छे; जे दुःख के विकार छे ते तो
ज्ञानथी भिन्न परिणाम छे, तेनुं कर्तृत्व ज्ञानीने नथी. माटे ज्ञानीने तो ज्ञानमय परिणाम ज छे.
अहो, जुओ तो खरा आ ज्ञानीना अंतरना खेल! ज्ञानीना परिणाम ज्ञानमय ज छे. जेम भगवान
सर्वज्ञदेव जगतना रागादि परिणामोना ज्ञाता ज छे तेम साधकधर्मात्मा पण रागादि परिणामोना ज्ञाता ज
छे, बंनेना ज्ञातापणामां कांई फेर नथी. वाह साधक थयो त्यां सर्वज्ञनी हारमां बेठो. अंतरचक्षुनी नजरे
जुए तो ज ज्ञानी ओळखाय तेवा छे.