Atmadharma magazine - Ank 219
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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पोष: २४८८ : १३ :
(श्रावकनां कर्तव्यनुं वर्णन)
वीर सं. २४८७ना श्रावण वद १३ थी भादरवा सुद १४
दरमियान श्री पद्मनंदी पच्चीसीना छठ्ठा अध्याय उपर पू. गुरुदेवनां
प्रवचनो; (तेनी साथे वीर सं. २४७६मां थयेलां आ अधिकार उपरनां
प्रवचनोनो सार पण जोडी देवामां आव्यो छे.) लेखांक बीजो; अंक नं.
२१७थी चालु:)
‘उपासक’ एटले आत्मानी उपासना करनार–सेवा करनार
धर्मात्मा केवा होय, अथवा तो वीतरागी देव–गुरुना उपासक
श्रावको केवा होय–तेनुं आमां वर्णन छे. पहेली गाथामां, व्रततीर्थना
प्रवर्तक श्री आदिनाथ भगवानने तथा दानतीर्थना प्रवर्तक श्री
श्रेयांसराजाने याद करीने मंगलाचरण कर्युं; बीजी अने त्रीजी
गाथामां रत्नत्रय ते धर्म छे, ने ते ज मोक्षनो मार्ग छे–एम बताव्युं;
चोथी गाथामां ते रत्नत्रयधर्मना आराधक जीवोना बे भेद
बताव्या–निर्ग्रंथ मुनि अने गृहस्थ श्रावक; पछी पांचमी अने छठ्ठी
गाथामां धर्मात्मा श्रावकोने पण धर्मना मूळ कारण कह्या छे.–ते
संबंधी विवेचन चाली रह्युं छे.
देशव्रतउद्योतनी २०मी गाथामां कह्युं छे के श्रावक धर्मात्माओ गुणवान मनुष्यो वडे संमत छे–
प्रशंसनीय छे–आदरणीय छे; सज्जनोए अवश्य तेमनो आदरसत्कार करवो जोईए. वळी २१मी गाथामां
पण श्री पद्मनंदीस्वामी कहे छे के आ दुःषमकाळमां जे श्रावक भक्तिसहित यथाविधि चैत्य–चैत्यालय करावे
छे ते भव्य सज्जनो वडे वंद्य छे– ‘भव्यः स वंद्यः सताम्।’ जैनधर्ममां मुनिओ तो कांई मंदिर वगेरेनो
आरंभ समारंभ करता नथी; जिनमंदिर बंधाववा वगेरे कार्यो श्रावको करे छे. धर्मात्मा श्रावको भक्तिपूर्वक–
वीतराग सर्वज्ञ अर्हंत परमात्मा प्रत्येना बहुमानथी मोटा मोटा जिनालयो बंधावे छे; जुओने, मूलबिद्रिमां
“त्रिभुवनतिलकचूडामणि” नामनुं केवुं मोटुं जिनमंदिर हतुं? अने श्रवणबेलगोलमां बाहुबली भगवानना
केवा मोटा भव्य प्रतिमा छे? एवा मंदिरो तथा एवा प्रतिमाओ धर्मात्मा श्रावको भक्तिपूर्वक करावे छे. त्यां
मूळबिद्रिमां लाखो–करोडो रूा. नी किंमतना ऊंची जातना हीरा–माणेक–मोती–नीलम वगेरे रत्नोना
प्रतिमाओ छे ते पण श्रावकोए केटला भक्तिभावथी कराव्या हशे? अहीं एकला रागनी वात नथी,
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान उपरांत वीतरागदेवनी भक्ति–पूजानो आवो भाव श्रावकने आवे छे, तेनी आ
वात छे. जिनमंदिर बंधाववानुं, मुनिवरोना देहनी स्थितिनुं अने दान वगेरेनुं मूळ कारण श्रावक छे. माटे
गृहस्थोए सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक श्रावकधर्म उपासवायोग्य छे. श्रावकधर्मनुं य मूळ सम्यग्दर्शन छे