Atmadharma magazine - Ank 219
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म: २१९
तेथी तेनो भाव द्रढपणे वारंवार कहेवामां अने घूंटवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन तो मूळ पायो छे, एना वगर
तो धर्मनी वात ज केवी? गृहस्थपणामां रहेला जीवोए प्रथम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान सहित रागनी
मंदता करीने गृहस्थ धर्मने दीपाववो जोईए.
श्रावकना अंतरमां सर्वज्ञ परमात्मानी, निर्ग्रंथ मुनिओनी अने तेओना कहेला शास्त्रोनी ओळखाण
अने बहुमान छे; तेथी ते भक्तिपूर्वक (–मान लेवा माटे के बहारमां पूजावा माटे नहि, पण पोताना
अंतरनी भक्तिपूर्वक) जिनबिंब करावे छे, जिनमंदिरो बंधावे छे, मुनिराज मळे तो बहुमानपूर्वक भक्तिथी
दानादि करे छे, तेम ज भक्तिपूर्वक शास्त्रोनुं व्याख्यान करे छे, तथा विशाळबुद्धिवाळा भव्य जीवोने वांचवा
माटे पुस्तको आपे छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो! आवा ज्ञानदान वडे भव्य जीवो अल्पकाळमां केवळज्ञान
पामे छे. (जुओ, देशव्रतउद्योतन गाथा: १०)
शास्त्र स्वाध्यायमां तेमज बीजा ज्ञानी धर्मात्माओने शास्त्रदान करवामां ज्ञाननी वृद्धिनी भावना
घूंटाय छे, तेमां रागरहित ज्ञाननुं जे घोलन छे ते मोक्षनुं कारण छे. सम्यग्द्रष्टि श्रावकने चैतन्यनी
भावनापूर्वक जे शास्त्रदान वगेरेनो शुभ राग छे ते व्यवहारे मोक्षनुं कारण छे, अने ते वखते जेटलुं
रागरहित ज्ञान घूंटाय छे ते खरुं मोक्षनुं कारण छे. धर्मात्माने अंदरमां राग अने ज्ञाननी भिन्नताना
भानपूर्वक ज्ञानस्वभावनी आराधना जागी छे तेथी तेने ज्ञाननी प्रभावनानो खरो भक्तिभाव होय छे.
नियमसारमां भक्ति अधिकारमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के:
श्रावक श्रमण सम्यक्त्व–ज्ञान–चारित्रनी भक्ति करे,
निर्वाणनी छे भक्ति तेने एम जिनदेवो कहे. १३४.
जे श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने सम्यक् चारित्रनी भक्ति करे छे तेने निवृत्ति–
भक्ति छे एटले के ते मोक्षनो आराधक छे एम भगवान जिनदेवे कह्युं छे.
जुओ, रत्नत्रयनी आराधनारूप परम भक्ति श्रावकने पण होय छे. निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक्–
श्रद्धान–ज्ञान–आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रयपरिणामोनुं भजन ते भक्ति छे, अने आराधना एवो तेनो अर्थ
छे, एटले के शुद्ध रत्नत्रयनी जेटली आराधना छे तेटली मोक्षनी परम भक्ति छे. बधाय श्रावको अने
मुनिओ आ रीते रत्नत्रयनी भक्ति करे छे. अने अर्हंतो–सिद्धो वगेरेना केवळज्ञानादि परम गुणो प्रत्ये
बहुमानरूप भक्ति ते व्यवहारभक्ति छे. टीकाकार पद्मप्रभ मुनिराज कहे छे के, भवभयने हरनारा
सम्यक्त्वनी, ज्ञाननी अने चारित्रनी भवछेदक अतुल भक्ति निरंतर जे जीव करे छे ते, श्रावक हो के श्रमण
हो,–निरंतर भक्त छे, भक्त छे, एटले के ते मोक्षनो आराधक छे, आराधक छे; अने तेनुं चित्त पाप–
समूहथी मुक्त छे. सम्यग्दर्शनादिनी आराधना करनार आवा श्रावक पण धन्य छे.
अष्टप्राभृतमां पण आचार्यदेव कहे छे के: जेणे सम्यक्त्वने स्वप्नमां पण मलिन कर्युं नथी ते जीव
धन्य छे, ते कृतकृत्य छे, ते शूरवीर छे अने ते पंडित छे. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी मोक्षमार्गनी शरूआत थई
गई छे. मुनि पण कहे छे के हे श्रावक! तुं धन्य छो.....तुं प्रशंसनीय छो....तुं मोक्षना पंथे चालनार छो.
जेने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थयुं छे–एवा धर्मात्मा गृहस्थश्रावकनां आचरण केवा होय तेनुं
अहीं वर्णन छे. सम्यग्दर्शन थया पहेलां पण धर्मना जिज्ञासुने ते यथायोग्य लागु पडे छे.
श्रावकने प्रथम तो भगवान सर्वज्ञदेवनी ओळखाणपूर्वक तेमना प्रत्ये बहुमान होय. साक्षात्
भगवानना वियोगमां तेमनी स्थापना माटे जिनमंदिर बंधावे. जेम पोताना घरनी शोभानो भाव आवे छे
तेम तेनाथी पण अधिक जिनमंदिरनी शोभानो भाव आवे छे. भगवान जेमां बिराजमान छे, भगवाननुं
जे घर छे–एवा जिनगृहनी उत्कृष्ट शोभा केम थाय तेनो भाव धर्मात्माने आवे छे. जिनप्रतिमाने जोतां
धर्मीने