तेथी तेनो भाव द्रढपणे वारंवार कहेवामां अने घूंटवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन तो मूळ पायो छे, एना वगर
तो धर्मनी वात ज केवी? गृहस्थपणामां रहेला जीवोए प्रथम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान सहित रागनी
मंदता करीने गृहस्थ धर्मने दीपाववो जोईए.
अंतरनी भक्तिपूर्वक) जिनबिंब करावे छे, जिनमंदिरो बंधावे छे, मुनिराज मळे तो बहुमानपूर्वक भक्तिथी
दानादि करे छे, तेम ज भक्तिपूर्वक शास्त्रोनुं व्याख्यान करे छे, तथा विशाळबुद्धिवाळा भव्य जीवोने वांचवा
माटे पुस्तको आपे छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो! आवा ज्ञानदान वडे भव्य जीवो अल्पकाळमां केवळज्ञान
पामे छे. (जुओ, देशव्रतउद्योतन गाथा: १०)
भावनापूर्वक जे शास्त्रदान वगेरेनो शुभ राग छे ते व्यवहारे मोक्षनुं कारण छे, अने ते वखते जेटलुं
रागरहित ज्ञान घूंटाय छे ते खरुं मोक्षनुं कारण छे. धर्मात्माने अंदरमां राग अने ज्ञाननी भिन्नताना
भानपूर्वक ज्ञानस्वभावनी आराधना जागी छे तेथी तेने ज्ञाननी प्रभावनानो खरो भक्तिभाव होय छे.
निर्वाणनी छे भक्ति तेने एम जिनदेवो कहे. १३४.
छे, एटले के शुद्ध रत्नत्रयनी जेटली आराधना छे तेटली मोक्षनी परम भक्ति छे. बधाय श्रावको अने
मुनिओ आ रीते रत्नत्रयनी भक्ति करे छे. अने अर्हंतो–सिद्धो वगेरेना केवळज्ञानादि परम गुणो प्रत्ये
बहुमानरूप भक्ति ते व्यवहारभक्ति छे. टीकाकार पद्मप्रभ मुनिराज कहे छे के, भवभयने हरनारा
सम्यक्त्वनी, ज्ञाननी अने चारित्रनी भवछेदक अतुल भक्ति निरंतर जे जीव करे छे ते, श्रावक हो के श्रमण
हो,–निरंतर भक्त छे, भक्त छे, एटले के ते मोक्षनो आराधक छे, आराधक छे; अने तेनुं चित्त पाप–
समूहथी मुक्त छे. सम्यग्दर्शनादिनी आराधना करनार आवा श्रावक पण धन्य छे.
गई छे. मुनि पण कहे छे के हे श्रावक! तुं धन्य छो.....तुं प्रशंसनीय छो....तुं मोक्षना पंथे चालनार छो.
तेम तेनाथी पण अधिक जिनमंदिरनी शोभानो भाव आवे छे. भगवान जेमां बिराजमान छे, भगवाननुं
जे घर छे–एवा जिनगृहनी उत्कृष्ट शोभा केम थाय तेनो भाव धर्मात्माने आवे छे. जिनप्रतिमाने जोतां
धर्मीने