: १६ : आत्मधर्म: २१९
नियमसारमां तो निश्चयरत्नत्रयने ज नियमथी कर्तव्य कहीने, तेने ज आवश्यक कर्म कहेवामां आव्या
छे, त्यां रागने के व्यवहारने आवश्यक कर्म कहेतां नथी; ए ज रीते समयसारमां पण एम कह्युं छे के शुद्ध
आत्मानी अनुभूति करवी ते ज आगमनुं विधान छे ते ज भगवाननुं फरमान छे.–परंतु आवुं उत्कृष्टस्वरूप
जे समजे तेने तेवो उपदेश देनारा देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये परम विनय–बहुमान अने भक्तिभाव जाग्या वगर
रहे नहि. तेथी अहीं सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानपूर्वकना श्रावकना शुभकर्तव्योने पण आवश्यक कहेवामां आवे छे,
श्रावकनी भूमिकामां ते कार्य अवश्य होय छे. केमके श्रावकनी भूमिकामां हजी राग तो छे, तो रागनुं वलण
कई तरफ जशे? वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र तरफ ज तेनुं वलण जशे. अहीं एम न समजवुं के सम्यग्दर्शन
पछी ज आ कर्तव्यो होय, ने पहेलां न होय;–सम्यग्दर्शन पहेलां पात्रतामां पण जिज्ञासुजीवने देवपूजा,
गुरुसेवा वगेरे कार्यो हररोज होय छे. एटली पण रागनी दिशा जेने न बदले, धर्मना निमित्तो तरफ एटलो
पण भक्ति–बहुमाननो भाव जेने न आवे तेने तो रागनी मंदता पण नथी. तो पछी रागना अभावरूप
धर्मने तो ते क््यांथी पामशे? एटले एनामां तो धर्म पामवानी पात्रता पण नथी. श्री पद्मप्रभमुनिराज
नियमसारमां कहे छे के अरे जीव! भवभयने भेदनारा आ भगवान प्रत्ये शुं तने भक्ति नथी?–तो तुं
भवसमुद्रनी मध्यमां रहेला मगरना मुखमां छो. आनो अर्थ कांई एवो नथी के राग ते धर्म छे पण
संसारना प्रेमवाळो जेम स्त्री–पुत्रादिनां मोढां रोजेरोज रागपूर्वक जुए छे तेम धर्मना प्रेमवाळो जीव
वीतरागताने पामेला एवा देव–गुरु–धर्मात्मानी मुद्रानां दर्शन रोजेरोज भक्तिपूर्वक करे छे; तेमां तेने धर्मनो
प्रेम अने बहुमान पोषाय छे.
भगवान एम कहे छे, गुरु पण एवो ज उपदेश करे छे ने शास्त्र पण एम ज कहे छे के, तुं तारा
आत्मा तरफ वळ, अमारा प्रत्येना रागथी लाभ मानीने तेना आश्रयमां तुं अटकीश नहि. एटले जे रागथी
लाभ मानीने रोकाय तेणे देव–गुरु–शास्त्रनी खरी उपासना करी नथी. अहीं तो एवा जीवनी वात छे के जेणे
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी आराधना प्रगट करी छे पण हजी मुनि दशा प्रगट नथी एटले गृहस्थपणामां
रहेल छे.–आवा धर्मात्माने रोजेरोज भगवाननी पूजा, गुरुनी उपासना, शास्त्रनी स्वाध्याय, पोतानी शक्ति
अनुसार संयम–तप अने दान–ए छ कर्तव्य होय छे.
१. देवपूजा: श्रावकधर्मात्मानुं कर्तव्य छे के रोजे रोज सवारमां भगवाननां दर्शन पूजन करे. संसारना
बीजा कार्यो करतां पहेलां रोजेरोज पोताना ईष्टध्येयरूप सर्वज्ञदेवनुं स्मरण करीने, तेमना महिमानुं चिंतवन
करे, तेमनी प्रतिमाना दर्शन–पूजन करे. भगवाननी वीतराग–प्रतिमाने पण भगवान समान ज गणवामां
आवी छे–
“कहत बनारसी अलप भवस्थिति जाकी
सोही जिनप्रतिमा प्रमाणें जिनसारखी।”
जिनप्रतिमा ते जिनभगवान ज छे, अहो! उपशांतरसमां झूलती आ जिनमूद्रा नीहाळतां जाणे
चैतन्यस्वभावनुं ज आखुं प्रतिबिंब होय! आम यथार्थ स्थापनानिक्षेप धर्मात्माने ज होय छे. अने आ रीते
ओळखाणपूर्वक जे जीव जिनप्रतिमाने जिनसमान समजे छे ते जीवनी भवस्थिति अल्प ज होय छे,
अल्पकाळमां ते मोक्ष पामे छे. जिनबिंब केवा होय? वीतराग होय; मौनपणे जाणे वीतरागतानो ज बोध
देता होय! जेम भगवान सर्वज्ञदेव अरिहंत परमात्मामां कांई दूषण नथी, तेमने वस्त्र–शस्त्र–आभूषण
वगेरे परिग्रह नथी तेम तेमनी प्रतिमा पण निर्दोष–वस्त्रशस्त्र के आभूषण रहित होय, जे दुषित होय,
वस्त्रादि परिग्रह सहित होय ते खरेखर अरिहंतनी प्रतिमा नथी. जेम, सामुं मुख जेवुं होय तेवुं ज
अरीसामां देखाय तेने प्रतिबिंब कहेवाय छे, पण मुख होय माणसनुं ने अरीसामां देखाय वांदरानुं मोढुं,
एम बनतुं नथी; तेम भगवान जिनदेव वीतराग छे तेमनुं प्रतिबिंब (एटले के प्रतिमा) ते पण वीतराग
ज होय छे; रागवाळा प्रतिबिंबने वीतरागनुं प्रतिबिंब कहेवाय नहीं.
जुओ, भगवानना दर्शन–पूजन करवानुं कह्युं तेमां आ रीते वीतरागस्वरूपे भगवानने ओळखीने दर्शन–