Atmadharma magazine - Ank 219
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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पोष: २४८८ : १७ :
पूजन करवा जोईए. तेमना स्वरूपनी ओळखाण वगर साचो लाभ थाय नहि. श्रावकना संस्कार केवा होय
तेनी वात छे. जैनधर्मना उपासक श्रावकना हैयामां भगवान जिनदेव बिराजता होय, बीजाने ते स्वप्नेय
माने नहि. जे जीव कुदेवादिने मानतो होय तेने तो खरेखर श्रावकना संस्कार ज नथी; जिनदेवनो उपासक
कोईपण सरागी देवने माने नहि.
जीवनुं ईष्ट–ध्येय शुं? के सर्वज्ञता ने पूर्ण आनंदरूप परमात्मदशा प्रगट करवी ते; तो अत्यार सुधीमां
एवी परमात्मदशा जेमणे प्रगट करी छे ते परमात्मा केवा होय–तेनी ओळखाण करवी जोईए. अने
परमात्मदशानो जेने प्रेम जाग्यो तेने एवा परमात्माना अथवा तेमनी प्रतिमाना दर्शननो अने पूजन–
भक्तिनो उमंग आव्या वगर रहे ज नहि; एवो भाव न आवे ने तेनो निषेध करे तो समजवुं के तेने
परमात्मपद वहालुं लाग्युं ज नथी.
अहीं देवपूजानी वात करी तेमां, भगवाननुं जिनमंदिर बंधाववुं, तेनी शोभा वधारवी, तेना मोटा
महोत्सव करवा–ए बधुं पण भेगुं समाई जाय छे. जेम पोताने रहेवा माटे मकान बंधाववानो ने तेनी
शोभा वधारवानो भाव गृहस्थने आवे छे (तेमां तो पापभाव छे छतां तेवो भाव आवे छे) तेम धर्मी
जीवने रागनी दिशा बदलीने, जिनमंदिर बंधाववानो ने प्रतिष्ठामहोत्सव वगेरे करवानो भाव आवे छे :
अहो! त्रणलोकना नाथनुं जे घर, त्रणलोकना नाथ अरिहंत परमात्मा जेमां बिराजे एवुं जिनमंदिर, तेनी
उत्कृष्ट शोभा केम वधे? तेने माटे हुं मारा तन–मन–धनथी शुं–शुं सेवा करुं! एवो भाव धर्मीने तेमज धर्मना
जिज्ञासु श्रावकने आव्या वगर रहेतो नथी.
पूर्णध्येयरूप जे सर्वज्ञपद, परमात्मपद–तेना अचिंत्यमहिमानी शी वात! आवा पूर्णध्येयरूप
सर्वज्ञपरमात्माने सौथी पहेलां हंमेशा याद करीने श्रावक तेमनां दर्शन–पूजन करे छे. ते दर्शन–पूजन करतां
पोताना परमवीतराग–चैतन्यबिंब स्वभावनुं स्मरण अने भावना जागे छे. भगवान कुंदकुंद स्वामी
प्रवचनसारमां कहे छे के–
जे जाणतो अर्हंतने
गुण द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने,
तसु मोह पामे लय खरे. (८०)
भगवान अर्हंतदेव जेवुं ज पोतानुं शुद्धचैतन्यस्वरूप छे–एम ओळखीने ज्यां अंतर्मुख वळ्‌यो त्यां
मोहनो क्षय थईने सम्यग्दर्शन थाय छे. जे जीव आवा अर्हंत भगवानना दर्शन पूजननोय निषेध करे ते तो
तीव्र मोहमां डुबेलो छे. श्रावके रोजेरोज करवाना कर्तव्यमां पहेलुं ज कर्तव्य भगवान जिनदेवना दर्शन–पूजन
करवा ते छे.
परदेशथी आवेला एक भाई पूछे छे : जे देशमां जिनमंदिर वगेरे न होय त्यां शुं करवुं?
तेना उत्तरमां गुरुदेव कहे छे के जे देशमां धर्मनी अने सम्यग्दर्शननी हानि थवानो प्रसंग होय ते देश
छोडी देवो. ज्यां देव–गुरु–शास्त्रनो योग न होय, ज्यां भगवाननां दर्शन न मळे, ज्यां धर्मात्मानो संग न
मळे, ज्यां साचा शास्त्रनी स्वाध्याय न मळे–एवा क्षेत्रने मुमुक्षु जीवे छोडी देवुं.–एवा क्षेत्रमां कदाच लाखो–
करोडो रूा. नी पेदाश थती होय तोपण तेनो लोभ मुमुक्षुए जतो करवो; केमके धनना ढगला खातर कांई
धर्मने न वेचाय. आ अधिकारनी ज २६मी गाथामां शास्त्रकार कहेशे के–सम्यग्द्रष्टि श्रावको एवा देशनो,
एवा पुरुषनो, एवा धननो के एवी क्रियानो कदापि आश्रय नथी करता के ज्यां तेनुं सम्यग्दर्शन मलिन
थवानो के व्रतोनुं खंडन थवानो संभव होय.
जुओ. आ धर्मनो प्रेम! धर्मनो प्रेमी जीव एवा द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनुं सेवन करे के ज्यां पोताना
धर्मनुं पोषण मळे. आराधनाने पुष्टि आपे एवा द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप सामग्रीना सेवननो शास्त्रमां उपदेश
छे. मुनिओने पण प्रवचनसारमां कहे छे के हे मुनिओ! तमारा गुणनी रक्षा माटे तथा तेनी वृद्धि माटे नित्य
गुणीजनोना सत्संगमां वसजो...असत्संग न करशो. मुमुक्षुजीव एवा माणसनो संग छोडी द्ये के जे सदाय