मागसर वद त्रीज ने रविवारे वीसविहरमान मंडलविधाननी पूर्णता
सीमंधरनाथने अर्घ चडावीने गंधोदक लीधुं हतुं. त्यारबाद स्वाध्याय–
मंदिरमां पधार्या हता, त्यां सर्वे भाई–बहेनोए घणा भावथी दर्शन–स्तुति
पं श्री हिंमतभाई पासे वंचावीने घणा महिमापूर्वक तेना अर्थ कर्या हता: स्तुतिकार–आचार्य महावीरप्रभुनी
स्तुति करतां कहे छे के–
एवी मधुर रचनावाळा होवा छतां, आत्महितकारी एवा बहुगुणोनी संपत्तिथी रहित छे, सर्वथा
एकान्तवादनो आश्रय लेवाने कारणे तेना सेवनथी निजगुणोनी प्राप्ति थती नथी; तेमज ते यथार्थ
वस्तुस्वरूपना निरुपणमां असमर्थ होवाथी अपूर्ण छे, बाधासहित छे अने जगतने माटे अकल्याणकारी
छे. परंतु हे नाथ! अनेक नयभंगोथी विभूषित आपनो अनेकान्तमत यथार्थ वस्तुस्थितिना
निरुपणमां समर्थ छे, बहुगुणोनी सम्पत्तिथी युक्त छे अर्थात् तेना सेवनवडे बहु गुणोनी प्राप्ति थाय
छे, अने ते सर्व प्रकारे भद्ररूप छे. निर्बाध छे, विशिष्ट शोभासम्पन्न छे अने जगतने माटे कल्याणरूप
छे.
एक समयमां उत्पाद–व्यय–ध्रुवता, क्षणेक्षणे बदले छतां निजगुण–अनंतगुण एमने एम टकी रहे–
आवी वस्तुस्थिति सर्वज्ञ सिवाय बीजा कोई प्रगट करी शके नहि. अन्य मतनी भाषा भले कोमळ होय
पण अंदर झेर छे. तेमां जीवने निजगुणोनी प्राप्ति थती नथी; ते एकान्तमतो मिथ्या छे. हे नाथ! तारुं
अनेकान्तशासन ज ‘समन्तभद्ररूप’ (सर्व प्रकारे कल्याणरूप) अने निर्दोष छे. हे नाथ! तारा आवा
निर्दोष एकान्तशासनने मुकीने बीजा एकान्तशासनने कोण सेवे? ते तो रागना पोषक छे, अने एकेक
आत्मामां अनंतगुणो छे–एवा गुणनी प्राप्ति ते एकान्तमतोमां नथी. जो अनंतगुण मानवा जाय तो
अनेकान्त साबित थई जाय छे ने सर्वथा एकान्त (–अद्वैत अथवा सर्वथा नित्य, के सर्वथा अनित्य–
ए बधा) मतो मिथ्या ठरे छे. माटे हे नाथ! आपना निर्दोष शासन सिवाय बीजो कोई मत जीवने
कल्याणरूप नथी; ते परमत तो जीवोने अनंत संसारमां रखडावनार छे ने आपनुं शासन जीवोने
तारनार छे.