Atmadharma magazine - Ank 219
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: २१९
स्वभावमां विकारना कर्तृत्वनो कण पण समाय तेम नथी. पछी ते विकल्प बंधननो हो के अबंधनो हो,
अथवा बद्ध पण छुं ने अबद्ध पण छुं–एवो विकल्प हो,–पण ते विकल्पना कर्तृत्वमां जे अटके ते मिथ्याद्रष्टि
ज रहे छे, ते विकल्पना ज पक्षमां उभो छे पण ज्ञानना पक्षमां आव्यो नथी. समस्त विकल्पोथी ज्ञानने छूटुं
पाडीने अंतर्मुख उपयोग वडे निर्विकल्प चैतन्यनुं वेदन थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
ज्यां आवुं सम्यग्दर्शन थयुं त्यां आत्मामां सोनानो सूरज ऊग्यो. मंगलप्रभात खील्युं. जुओ,
आ “सोना समोरे सूरज ऊगीओ”
निश्चयथी वस्तु तो अबद्ध ज छे, ते तो यथार्थ छे, ते कांई असत्य नथी; पण ‘हुं अबद्ध छुं’ एवो जे
विकल्प छे ते कांई वस्तुस्वरूप नथी, ते विकल्प वस्तुस्वरूपथी बहार छे, तेथी ते विकल्पना कर्तृत्वमां जे
रोकाय छे ते वस्तुस्वरूपथी बहार रहे छे. वस्तुस्वरूपनो अनुभव विकल्प वडे थई शकतो नथी. अहीं बद्ध–
अबद्धना विकल्पनी वात करी ते प्रमाणे शुद्ध–अशुद्ध, एक–अनेक वगेरे गमे तेना विकल्प हो,–पण ते ज्ञाननुं
कार्य नथी; तेने जे ज्ञाननुं कार्य माने छे ते जीव तेनाथी आगळ जईने उपयोगने चैतन्यस्वभाव तरफ
वाळतो नथी. जे जीव समस्त प्रकारना नयपक्षना विकल्पोने ओळंगी जाय छे ने शुद्धात्मानो साक्षात् आश्रय
करे छे ते ज चैतन्यने अनुभवे छे. जुओ, आ चैतन्यना अनुभवना कोड पूरवानी रीत! अनुभवना कोड
(उत्कंठा) तो घणाने होय पण तेनी रीत जाण्या वगर ते कोड पूरा केम थाय? भाई, तारा अनुभवना कोड
केम पूरा थाय ने अनुभव केम थाय–ते रीत संतो तने बतावे छे.
जुओ, निश्चयनयनो आश्रय छोडवानी वात नथी, पण ते निश्चयना विकल्पनो आश्रय छोडवानी
वात छे. जेम व्यवहारनो विकल्प छोडवा योग्य छे तेम निश्चयनयनो पण विकल्प तो छोडवा जेवो छे–ए
बराबर छे; परंतु तेनी जेम कोई एम कहे के जेम व्यवहारनयनो आश्रय छोडवा जेवो छे तेम निश्चयनयनो
पण आश्रय छोडवा जेवो छे तो ते वात बराबर नथी. व्यवहारनयनो तो आश्रय छोडवा जेवो छे पण
निश्चयनयनो आश्रय छोडवा जेवो नथी. निश्चयना आश्रयमां कांई विकल्प नथी. विकल्पथी पार अंतर्मुख
थाय त्यारे ज निश्चयनो आश्रय प्रगटे छे. शुद्धआत्मा सम्यग्दर्शननो विषय छे, पण ‘हुं शुद्ध छुं’ एवा
विकल्पनो कांई ते विषय नथी. आखी परिणतिनी जात ज जुदी, विकल्प ते विभाव परिणति, अने
सम्यग्दर्शन ते स्वभाव–परिणति, तेमने कांई लागतुं वळगतुं नथी. परिणति ज्यारे चैतन्यमां अंतर्मुख
परिणमे त्यारे तेमां विकल्पनुं कर्तृत्व रहेतुं नथी. ज्ञेयपणे विकल्प भले हो, पण ज्ञानना कार्यपणे विकल्प
होतो नथी. विकल्पने ज्ञाननुं कार्य माने तो ते विकल्पने ओळंगीने चैतन्य तरफ केम वळे? अहा, केटली
वीतरागता!! सम्यग्दर्शनमां पण आवी वीतरागता छे के रागना अंश मात्रने स्वकार्यपणे ते स्वीकारतुं
नथी. निर्विकल्प अनुभूति ज्ञानने अंतर्मुख करवाथी ज थाय छे.
अहो, आवी वस्तुस्थिति छे तो विकल्पना कर्तृत्वमां कोण अटके? नयपक्षना समस्त विकल्पोना
त्यागनी भावनाने कोण न नचावे? विकल्पथी भिन्न चेतनाने कोण न परिणमावे? जेओ नयोना
पक्षपातने छोडीने एटले विकल्पथी भिन्न पडीने निर्विकल्प अनुभूतिथी चैतन्यने अनुभवे छे तेओ
निर्विकल्प आनंदरसना परम अमृतने साक्षात् पीए छे.
पहेली वखत तो निर्विकल्प अनुभूतिथी साक्षात् अमृतने अनुभवे छे, अने पछी विकल्प ऊठे तो
पण ते विकल्पने ज्ञानथी जुदापणे ज राखे छे, एटले पोते तो पोताना चेतनस्वरूपमां ज गुप्त रहे छे.
विकल्प आवे तेमां ज्ञान चाल्युं जतुं नथी; जे भेदज्ञान परिणमी गयुं छे ते विकल्प वखतेय सतत चालु रहे
छे. विकल्पमां तो चित्तनो क्षोभ छे, शुभ विकल्पमां पण चित्तनो क्षोभ छे, कलेश छे; तेनाथी ज्ञानने भिन्न
जाणीने ज्यारे सर्व विकल्पोने ओळंगी जाय छे त्यारे विकल्पोनो पक्षपात मटी जाय छे ने निर्विकल्प श्रद्धा
थाय छे, एटले स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे ने अतीन्द्रिय सुख अनुभवाय छे.–आवी दशानुं नाम सम्यग्दर्शन
छे ने ते अपूर्व मंगल प्रभात छे.
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