Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४८८ : ९ :
वानना चोपडा तपासीने तत्त्वोनुं सरवैयुं काढे के कया तत्त्वो हेय छे कया तत्त्वो उपादेय छे ने कया तत्त्वो ज्ञेय
छे? तथा परिणाममां लाभ–नुकशान कई रीते छे ते जाणीने, लाभ थाय ते प्रकारे प्रवर्ते. शंका पडे तो विशेष
जाणकारने पूछीने निर्णय करे. ‘वांचे पण नहि करे विचार’–एटले के वांचे पण निर्णय न करे तो
शास्त्रस्वाध्यायनो खरो लाभ थाय नहि. आत्माना लक्षे स्वाध्याय करवी. हंमेशा कलाक–बे कलाक के एथी
पण वधारे वखत निवृत्ति लईने शांतपरिणामपूर्वक आत्मानी रुचिथी स्वाध्याय करवी–ते दरेक श्रावकनुं
दररोजनुं कर्तव्य छे.
प्रश्न:– तो पछी वेपारधंधा ने घरनां काम क््यारे करवा?
उत्तर:– पुण्य अनुसार बहारनां काम तो तेना कारणे थया करे छे, तेमां तारो जेटलो उपयोग
जोड तेटलो अशुभभाव छे. शुं चोवीसे कलाक अशुभमां ज पड्या रहेवुं छे? धर्मनी रुचिवाळाने
चोवीसे कलाक वेपारधंधानी एवी तीव्र लोलुपता न होय के शास्त्र वांचवानो वखत ज न मळे.–ते
हंमेशा स्वाध्याय करवा माटे अमुक निवृत्ति ल्ये. अहो, आ पापभावोमां तो जेटलो ओछो वखत
अपाय तेटलुं सारुं छे ने शास्त्र स्वाध्याय–चिंतन–मनन वगेरेमां जेटलो वधारे वखत अपाय तेटलुं
उत्तम छे,–एवी भावना होय. शास्त्र–स्वाध्याय वडे नवा नवा पडखाथी तत्त्वनिर्णय करतां ज्ञानादिनी
निर्मळता थती जाय छे ने वैराग्यनी वृद्धि थाय छे. माटे शास्त्रस्वाध्याय ते हंमेशनुं कर्तव्य छे.
गणधरभगवाने स्वाध्यायने पण परम तप कह्युं छे. शास्त्र लईने घरना कबाटमां राखी मुके तो
स्वाध्यायनो खरो लाभ न थाय; शास्त्रो वांचे तो नवा नवा पडखांनुं ज्ञान थाय,–शुं जाणता’ ता, शुं
नहोता जाणता, अथवा समजणमां क््यां फेर हतो तेनो निर्णय स्वाध्यायथी थाय छे. धर्मनी रुचिवाळा
श्रावकने ज्ञाननो रस होय एटले वीतरागीशास्त्रोनी स्वाध्यायनो पण तेने प्रेम आवे, तेथी ते तेनुं
हंमेशनुं कर्तव्य छे. तेमां तेने बोजो न लागे पण उत्साह आवे. शास्त्रनी अध्यात्मचर्चामां नवा नवा
सूक्ष्म न्यायोनुं स्पष्टीकरण थतां तत्त्वना जिज्ञासुने जे आनंद थाय तेवो आनंद मोटा मोटा राजाओने
राजपाटमां पण नथी. सर्वार्थसिद्धि वगेरे देवलोकना देवो सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा छे, आत्मानो अनुभव
तेमणे कर्यो छे, ते देवो पण असंख्याता वर्षो सुधी देवलोकमां धर्मनी चर्चा करे छे. साधर्मीओ साथे
मळीने जिज्ञासुभावे धर्मनी चर्चा करवी ते पण स्वाध्याय छे, गुरु पासे विनयथी सांभळवुं के पूछवुं ते
पण स्वाध्याय छे, गुरु पासेथी सांभळेलुं अध्यात्मतत्त्व मनमां चिंतववुं ते पण स्वाध्याय छे.
आ रीते श्रावके हंमेशा करवा योग्य छ कर्तव्योमांथी देवपूजा, गुरुनी उपासना अने शास्त्रनी
स्वाध्यायए त्रणनी वात करी; ते उपरांत पोतानी भूमिका मुजब अने शक्ति प्रमाणे संयम, तप अने दान–
ए पण श्रावके हंमेशा कर्तव्य छे.
(४) संयम:– जे चैतन्यनो उपासक छे, आत्मानी सेवा–आराधना करनार छे–एवो श्रावक कषायोने
अने ईन्द्रियविषयोने घटाडीने रोजे रोज संयमनो अभ्यास करे. विषय कषायोमां स्वच्छंदपणे तेनी प्रवृत्ति न
होय; चैतन्यनो रस जेणे चाख्यो छे, अथवा चैतन्यरसनो जेने प्रेम छे तेने आकुळताजनक बाह्यविषयो प्रत्ये
सहेजे वैराग्य होय. तेथी कह्युं छे के:–
ज्ञानकला जिसके घट जागी, ते जगमांही सहज वैरागी,
ज्ञानी मगन विषय सुख मांही, यह विपरीत संभवे नांही.
ज्ञानीने चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद पासे ईन्द्रियविषयो तूच्छ भास्या छे; जेने आत्मानी
उपासनानो प्रेम होय तेने जगतना बाह्यविषयो प्रत्ये वैराग्य होय. ‘बाह्यविषयोमां शुं वांधो छे!’ एवी
वृत्ति तेने न आवे. ज्यां बाह्यविषयोनो प्रेम (रुचि) होय त्यां चैतन्यनो प्रेम होई शके नहि. चैतन्यनो प्रेम
थाय त्यां बाह्यविषयोनो प्रेम उडी जाय. तेथी श्रावकने हंमेशा संयमनी भावना होय छे ने शक्ति अनुसार
व्रतादिनुं पालन करीने संयम पाळे छे.
(प) तप:– वळी संयम उपरांत तप पण करे. अष्टमी, चतुर्दशीना उपवास के एकाशन वगेरे
प्रकारना तप पोतानी शक्ति अनुसार श्रावक करे. तपना बार प्रकार