Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: २२०
प्रत्ये तेने बहुमान–भक्ति सहेजे होय छे; तेथी देव–पूजा, गुरुसेवा वगेरे छ कर्तव्य श्रावकने रोजेरोज होय
छे.
प्रश्न:– एक तरफथी एम कहेवुं के भूतार्थ–स्वभावना आश्रयथी ज धर्म थाय छे, अने वळी बीजी
तरफथी देवपूजा–गुरुसेवा वगेरे शुभर्क्तव्यनो उपदेश आपवो–ए बंनेनो मेळ कई रीते छे?
उत्तर:– भूतार्थस्वभावनो आश्रय करवानी जेनामां पात्रता जागी तेने व्यवहारमां आवा भावो होय
ज छे, तेथी भूतार्थस्वभावना आश्रयने अने आ छ कर्तव्यने विरुद्धता नथी पण मेळ छे.–आनो अर्थ कांई
एवो नथी के जे शुभराग छे तेना वडे धर्म थाय छे.–धर्म तो भूतार्थस्वभावना आश्रये ज थाय छे–ए नियम
छे. भूतार्थस्वभावना आश्रये जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट्या ते ज धर्म छे–एवुं धर्मनुं स्वरूप
स्थापीने पछी गृहस्थधर्मात्मानी स्थिति केवी होय ते अहीं ओळखाव्युं छे. भूतार्थस्वभावनो आश्रय करनार
जीवने देवपूजा–गुरुसेवा वगेरे शुभराग न ज होय–एवुं तो नथी; हा, एटलुं खरुं के ते शुभरागने ते धर्म न
माने; छतां ते भूमिकामां बीजा अशुभरागथी बचवा माटे तेने देव पूजा–गुरुसेवा वगेरे भावो जरूर आवे
छे, तेथी तेने श्रावकनुं कर्तव्य कह्युं छे. श्रावकनी भूमिकामां ते प्रकारनो शुभराग होवानो निषेध करे तो ते
धर्मनुं स्वरूप समज्यो नथी, तेमज ते शुभरागने धर्म मानी ल्ये तो ते पण धर्मनुं स्वरूप समज्यो नथी.
श्रावकनी भूमिकामां एवो शुभराग होय छे, एटली आ वात छे.
(३) स्वाध्याय:– वळी श्रावकनुं त्रीजुं कर्तव्य शास्त्रस्वाध्याय छे. श्रावक हंमेशां शांतिथी–निवृत्ति
परिणामथी शास्त्रस्वाध्याय करे. शब्दे– शब्दे जेमांथी वीतरागता झरती होय एवा शास्त्रना अभ्यासनो
धर्मात्माने प्रेम होय, ने दिनेदिने ते शास्त्रस्वाध्याय–श्रवण–मनन करे.
कोई कहे: बीजा काम आडे अमने शास्त्र वांचवानो वखत नथी मळतो! तो कहे छे के अरे भाई!
वेपारधंधामां के रसोडाना पापभावमां चोवीसे कलाक तुं डुब्यो रहे छे–तेमां तने वखत मळे छे अने शास्त्र
वांचवामां तने वखत नथी मळतो,–तो तने आत्मानी दरकार ज नथी. भोजनादि अन्य कार्योने माटे तो
तने वखत मळे छे, रोजेरोज छापाना समाचार वांचवानो के रेडियो सांभळवानो ने नोवेलवार्ता
वांचवानो वखत मळे छे अने अहीं कहे छे के सत्शास्त्र वांचवानो वखत नथी मळतो, तो तारी रुचिनी
दिशामां ज फेर छे. जे कामनी खरी जरूरियात लागे तेने माटे वखत न मळे एम बने ज नहि. जेने जे
कामनी खरी लगनी होय ते कामने माटे तेने जरूर वखत मळे ज छे; बीजे ठेकाणे परिणामने रोकवाने
बदले पोताने जे प्रिय लाग्युं तेमां ते पोताना परिणामने रोके छे. जीव पोताना परिणामने क््यांक ने
जुओने, लौकिक भणतरमां प०० के १०००नो पगार लेवा माटे केटला वर्षो गाळे छे! रातना उजागरा करी
करीने पण वांचे छे, तो अनंतभवनी भूख भांगनार आ चैतन्यविद्या भणवा माटे कांई उद्यम खरो?
लौकिक कामोमां तो कलाकोना कलाक गाळे छे, त्यां वखत न मळवानुं बहानुं नथी काढतो, अने धर्मकार्यमां
‘वखत नथी’ एवुं बहानुं काढे छे–तो तेने धर्मनी खरी रुचि ज नथी. परदेशथी पोताना सगावहालानो के
पति वगेरेनो पत्र आवे तो केटली उत्कंठाथी वांचे छे? तो वीतरागीशास्त्रोमां त्रिलोकनाथ तीर्थंकरोनो अने
संतोनो संदेश आव्यो छे के अमे आ रीते आत्माने साध्यो ने तमे पण आ रीते आत्माने साधो;
भगवाननो आवो सन्देश आत्मार्थी जीव केटली उत्कंठाथी ने केटली प्रीतिथी वांचे? शास्त्रमां भगवाने शुं
कह्युं–ने संतोए केवो अनुभव कर्यो–ते समजवा माटे श्रावक रोजेरोज प्रीतिपूर्वक शास्त्रस्वाध्याय करे. तेने
ज्ञाननो एवो रस होय के शास्त्रस्वाध्यायमां बोजो न लागे ने प्रीति लागे. आ रीते शास्त्रस्वाध्याय ते
श्रावकनुं हंमेशनुं कर्तव्य छे.
जेम वेपारनी प्रीतिवाळो हंमेशां चोपडानुं नामुं तपासे छे ने लाभनुकशाननुं सरवैयुं काढे छे, तेम
धर्मनी प्रीतिवाळो हंमेशा धर्मशास्त्रोनी स्वाध्याय करे, भग–