Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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माह : २४८८ : ११ :
परमार्थना अनुभवनो उपदेश
(अनुसंधान पृष्ठ ६ थी चालु)
लोभरूपी कुवानी भेखडमां पडेला प्राणीओ उपर करुणा करीने तेने उद्धारवा दाननो उपदेश दीधो छे.
–पण एटलेथी एम मानी जाय के आनाथी अमारुं कल्याण थशे, आ तरवानो उपाय छे,–तो एम पण मार्ग
नथी. एनाथी पुण्य बंधाय ने धूळ मळे.
(एक श्रोता:)–कुणो तो थाय?
भाई, खरेखर कुणो नथी. आ वात ज जुदी छे.
ए वात तो पहेलां करी के धर्मात्मा देव–गुरु–शास्त्र एनो बराबर विनय बहुमान बधुं होय; कांई
पण एनो आक्षेप, एनो विरोध, एनी निंदा, एनो अविनय–कांई पण होय तो मिथ्यात्वने बांधे छे.–
समजाणुं? पछी गमे तेटला भणतर हो ने गमे तेवो मोटो त्यागी मुनि थईने २८ मूळगुण पाळतो होय, तो
पण मिथ्याद्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थाश्रममां होय एनो पण जो अनादर अने अविनय करे तो मिथ्यात्वने
बांधे ने ७० क्रोडाक्रोडीनी स्थिति बांधे. पण एथी करीने आ स्वभावनी वस्तु छे ते तेटलामां आवी जाय–
एम नथी.
मुंबईमां कोई कहेता हता के महाराजने अंते दान उपर तो आववुं पड्युं!–पण भाई! आत्मानुं
अकषायस्वरूप जेने पकडवुं छे एने तृष्णानी मंदता तो केटली जोईए!–जेमां कांई छे ज नहि, रागनो कण
जगतनो छे, जगतमां हुं नथी ने हुं मां जगत नथी–आवी निर्लेप–निष्तुष द्रष्टि जेने करवी छे,–मेलनो कण
जेमां नथी, भगवान ज्ञाननो गांगडो चैतन्यमूर्ति, त्रणेकाळे रागथी तद्रन नीराळुं तत्त्व–एवुं जेने द्रष्टिमां
बेसाडवुं छे तेने आवी रागनी मंदता के दानादिनो भाव न होय एम बने नहि. ते होय खरुं–पण ते धर्म छे
के कल्याण छे के तेनाथी हळवे हळवे सम्यग्दर्शन पामशुं के आत्मामां जशुं–एम जो माने तो, बापु! त्यां मोटी
भूल थाय छे.
आत्मा ‘निर्भयराम’ छे. आत्मामां भय केवो! भगवान चैतन्यमूर्ति, तेमां राग नथी, विकल्प नथी
खरेखर भगवान आत्मा निर्भयराम चैतन्य ज्योत छे, एने भय केवो दुनियामां? भवनो भय न मळे;
भय टाळीने नाख्या बीजे! जेनी चीजमां भव न मळे एवो भगवान, आत्मा, तेने डर नहीं, भय नहीं,
दुनियानी दरकार नहीं; जगत जगतमां रह्युं ने आत्मा आत्मामां. विकल्प ऊठे ते बधाय जगतमां रह्या, तेनी
साथे आत्मा तन्मय नथी. आवो आत्मानो स्वभाव अंतरद्रष्टिमां लईने ज्ञाननी निर्मळकणिका–एटले
सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी निर्मळपर्याय प्रगट थाय ते ज निष्तुष परमार्थमार्ग छे, बीजो कोई मार्ग
त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी.
दर्शनज्ञानमां प्रवृत्त परिणतिमात्र शुद्धज्ञान ज एक छे–एवुं जे निष्तुष–निर्मळ अनुभवन ते परमार्थ
छे, कारण के ते अनुभवन पोते शुद्ध द्रव्यना अनुभवन स्वरूप छे. व्यवहार होय खरो पण, पहेलो व्यवहार
ने पछी निश्चय–एम नथी; अने निश्चयभान थया पछी जो व्यवहार बिलकुल न होय तो तो केवळज्ञान थई
जाय. व्यवहारना स्थानमां व्यवहार होय, करवो एम नहि; बराबर होय, विकल्पना काळे तेवो भाव होय,
भक्ति आवे, गुरु पासे जईने आलोचना करे, प्रायश्चित ल्ये, जडनी क्रिया पण तेम थवानी होय, विकल्प
ऊठवानो काळ एवो ज होय,–पण तेथी वस्तुनो स्वभाव ज्ञान छे–द्रष्टा छे ते भान चाल्युं जाय छे–एम
नथी. स्वभावनुं भान राखीने तेवा भाव होय छे पण ते भावने स्वभावनी साथे जो एकमेक माने तो
मिथ्याद्रष्टि छे. द्रष्टिना–सत्यना स्वभावनो आश्रय शुं छे, क््यां ढळवुं छे, ने ढळेली दशा केवी होय–तेनी एने
खबर नथी.