माह : २४८८ : १३ :
बार अंगनुं ज्ञान आवी गयुं. ते बार अंग भणी गयो.....जाओ! श्रुतकेवळी थई गयो, श्रुतकेवळी! अरे,
नवतत्त्वना नाम न आवडे छतां श्रुतकेवळी! भगवान आत्मा अंतर ज्ञायकना गाणां गाईने अंदरथी ऊभो
थयो.....त्यां बापे बेटो जोयो एटले निर्मळ–पर्यायरूप पुत्र थयो....एणे वैराग्य बेटा जाया....एणे खोज कुटुंब
सब खाया–अर्थात् रागादि समस्त परभावोने जुदा कर्या, पुण्य–पाप, दया–दान, व्रत–भक्ति वगेरे बधा
नाशवान छे, ते मारा स्वभावमां नथी.
अहो, जगतने माटे आ वात कठण छे.
निश्चय कहेवा जाय त्यां व्यवहारने भूले अने व्यवहार कहेवा जाय त्यां तेने अवलंबीने कल्याण थशे
–एम मानी बेसे. शुं थाय?–कांई एनी पात्रता वगर के एनी योग्यता वगर बेसे तेवुं नथी. भगवाने
अनंता जीवो जोया छे. ज्ञान ते आत्मानो स्वभाव छे.–एम अंतर्मुख थईने जीवे अनुभव कर्यो नथी. एवो
अनुभव करवो ते एक ज मोक्षमार्ग छे.
निश्चयनयनो विषय अभेद छे, ते ज परमार्थ छे. जेओ परमार्थने परमार्थ मानीने अनुभवे छे तेओ
ज समयसारने अनुभवे छे ने तेओ ज मोक्षने पामे छे, बीजा मोक्ष पामता नथी.
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अहो, आ तो हवे छेल्ली गाथाओ छे. तेमां संथारो अने समाधिना काळना प्रसंग पण भेगा
बतावता जाय छे.
बहु कथनथी बस थाओ. एक परमार्थनो ज अनुभव करो–एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छे:–
अलमलमति जल्पैदुर्विकल्पैरनल्पे–
रयमिय परमार्थ श्चेत्यतां नित्यमेकं।
स्वरसविसरपूर्ण ज्ञानविस्फूर्ति मात्रा–
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति्।।
बहु कहेवाथी ने बहु दुर्विकल्पोथी बस थाओ....जुओ, छेल्लुं छे ने! शुं कहीए!–कथननो विकल्प
ऊठे छे तेमां पण स्वभावने स्पर्शवानी ताकात नथी. तेथी ते पण दुर्विकल्प छे, तेनाथी पण बस
थाओ.....बस थाओ.....अलम अलम्। अहीं एटलुं ज कहेवानुं छे के आ परमार्थने एटले के अखंड
ज्ञानमूर्ति भगवान अभेद चैतन्यपदार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो, आंतरा विना अनुभवो; आ
एक ज मोक्षनो मार्ग छे, बीजो मार्ग नथी. बीजुं संभळावनारा मळे ने त्यां गोठी जाय, ने बीजी रीते
थशे एम माने,–पण एम न थाय, बापु! आ मारगडा कोई जुदा छे. अंतरमां गूम थईने चैतन्यनो
पत्तो लेवो; तेना विना तेनी प्राप्ति कदी होई शके नहीं. राग–द्वेष, पुण्य–पापना विकल्पनी जाळ
लाखकरोड भले होय–ते तो अनंतकाळथी करतो आवे छे,–नवमी ग्रैवेयके गयो त्यारे केवो हशे?
दिगंबर मुनि थयो, हजारो राणीओ त्यागी, ११ अंग नवपूर्वनां भणतर पण भण्यो, मोक्षमार्ग
प्रकाशकमां कहे छे के–अरे, त्यांसुधी आव्यो के आनो जाणनार छुं, आने (परने) जाणनार ज्ञान हुं छुं,
करनारो तो नहि; आ बधी चीज हुं नहि, शरीर नहि, वाणी नहि, मन नहि, राग नहि, एने जाणनार
ते हुं छुं–एवी विकल्पबुद्धिमां अटक्यो तोपण मिथ्याद्रष्टि छे.–भाई, एकलो परनो जाणनार ते ज्ञान?
के स्वज्ञानमूर्ति चैतन्य ते ज्ञान? भगवान ज्ञानमूर्ति निर्विकल्प चैतन्यज्योत पडी छे तेनी अंतरद्रष्टि
करीने सम्यग्ज्ञान करवुं ते ज्ञान छे, एना विना लाख शास्त्रनां भणतर ते ज्ञान नथी; तेने ज्ञान कहे छे
कोण? तीर्यंचने नवतत्त्वनां नाम पण न आवडतां होय छतां ते श्रुतकेवळी होय. अहो! श्रुतकेवळी! जे
श्रुतज्ञानम भगवान आत्मा प्रगट्यो अने जे ज्ञानवडे केवळज्ञान लेवाशे, एम नक्की थई गयुं के हवे
केवळज्ञान लीधे छुटको.–आ दशाए हळवे हळवे पूर्णानंदनी प्राप्ति, बीजी कोई वात नहीं. आवुं
अंतरात्मा सच्चिदानंद स्वरूपनुं भान थाय ते ज परमार्थ छे. अहीं एटलुं ज कहेवानुं छे के आ
परमार्थने एकने निरंतर अनुभवो, ते एक ज मोक्षमार्ग छे. बाकी बीजा दुर्वि–