Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४८८ : १प :
अहो....धन्य छे! सम्यग्दर्शन पाम्यो त्यां कहे छे के धन्य छे....धन्य छे! तुं शूरवीर छो. तुं वीर छो, तुं
मनुष्य छो, तुं पंडित छो–एम स्वामीकार्तिकमां आवे छे. तुं पंडित छो, तुं मनुष्य छो, तुं शूरवीर छो. तुं पंडित
मोटामां मोटो छो, तुं बार अंगनो भणनार छो, बधुं आवी गयुं तारामां.–आम अंदरथी प्रमोद आवे....
आहा!!
विकल्प तो आवे, न ज आवे एम नहि छतां ते विकल्प अंदरमां लई जाय एवी तेनामां ताकात
नथी. विकल्पनी भूमिकाथी खसीने भगवानने भाळे. महिमावंत प्रभु आत्मा छे, विकल्पनी महिमा ज नथी.
परमात्मा पोते, परम–आत्मा एटले परमस्वरूप कायमी स्वरूप, चिदानंद आदि–अंत विनानुं ध्रुवस्वरूप,
एने पकडयुं ने एनो अनुभव थयो एनाथी ऊंची चीज जगतमां बीजी कोई नथी. भले बीजी होशियारी
होय, बोलतां आवडे. पांच पांच हजारनी सभामां भाषण करो बे कलाक ऊभा ऊभा बोले, कंठ दुःखे नहि,
–पण तेमां शुं छे? ते बधो जडनो संसार छे, जड जडपणे खील्युं तेमां आत्मा नथी. अमने बहु आवडे–
बोलतां आवडे, समजावतां आवडे, सभारंजन करतां आवडे;–पण भाई! ए तो बधुं जडनो विस्तार छे.
भाई, जड विस्तार पामे, संसार विस्तार पामे तेमां तुं क््यां छो? अहीं तो मूळ वात छे....भाई! बीजे ज्यां
त्यां माखण चोपडनारा तो घणा मळे छे.
(एक श्रोता:) भगवान थवुं होय तो आवुं सांभळवुं जोईए.
भाई, आवुं समजवुं जोईए....रांको तो अनादिनो छो, ने चोराशीना अवतारमां रखडी तो रह्यो छे.
तेमांथी छूटवानी आ वात छे.
ओ....हो! समयसाराद् उत्तर किचित् न अस्ति....
न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति
कोईपण ऊंचामां ऊंचुं जगतमां कहेवातुं होय, पण भगवान आत्माना श्रद्धा–ज्ञान ने रमणता
सिवाय जगतमां कांई ऊंचुं छे नहि, त्रणकाळ त्रणलोकमां कोई ऊंचुं छे नहि; तीर्थंकरो पण एम कहे छे,
केवळीओ पण एम कहे छे. चारित्रवंत मुनिओ एम अनुभवी रह्या छे, ने समकितीना भानमां पण एवुं
वेदन होय छे. आ ज परमार्थ वस्तु छे, बीजी वस्तु परमार्थ नथी.
एक भाई कहेता हता के क्रमबद्धनी वात सांभळीने लोको स्वच्छंदी थाय छे के थवानुं हशे ते थशे.
अने व्यवहारनी कुणप हती ते पण चाली जाय छे. बधा क्रमबद्ध–क्रमबद्ध मंडया छे पण कुणप अने कषायनी
मंदतानी वात भूलाई जाय छे.
शुं करीए भाई! लोको भूले....के.....न भूले.....सत्य तो आ छे, थवुं हशे तेम थशे–एम मानीने
धीठाई आवी जाय, क्रमबद्धने नामे स्वच्छंद थई गयो!–शुं थाय? हती ते वात बहार आवी गई. न
समजे तो शुं थाय? स्वच्छंद सेवे के न सेवे ए तो एनो स्वतंत्र अधिकार छे. क्रमबद्ध समजनारनी तो
केटली शैली होय....बापु! देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये केटलो विनय होय! केटलुं बहुमान होय! अंदर एटला
गलगलीयां ने मीठास आवे के देव–गुरु–शास्त्रने माटे मान ने माथां मुकी द्ये. प्राण जाय तो पण देव–
गुरु–शास्त्रनो विनय ते न छोडे.–एटलो तो जेनो विनय व्यवहारमां होय.–समजाय छे? क्रमबद्धना
नामे आ बधा बोल लोको भूली जाय छे. शुं करीए बापा! वस्तु तो जे हती ते बहार आवी.
“अमारे शुं विकार करवानो भाव छे? ए तो क्रमबद्ध छे, विकार क्रमे आववानो हतो ते
आव्यो....कर्मनुं निमित्त ने अमारो स्वकाळ तेथी पापभाव आव्यो”–एम कहीने स्वच्छंदे वर्ते, पण अरे
बापु! तुं शुं कहे छे? आ तो तारी अंतर हृदयनी जे कुणप हती के हुं रागनी मंदता करुं,–एवी कुणप
पण चाली गई! तुं समज्यो ज नथी एककेय वातने! अरे भगवान! मरी जईश हो....एम तारा
आरा आवे एवा नथी.