: १८ : आत्मधर्म : २२०
आत्मानो सर्वज्ञस्वभाव आदरणीय छे
समस्त बंधभावो निषेधयोग्य छे.
(समयसार गा. १प९–१६० उपरना प्रवचनोमांथी)
ज्ञाननुं ज्ञान, ज्ञाननुं सम्यक्त्व अने ज्ञाननुं चारित्र ते तो स्वभावरूप छे एटले मोक्षना कारणरूप
छे; पण शुभ के अशुभ परभावरूप कषाय वडे ते ढंकाई जाय छे. मोक्षना कारणने जे ढांके ते भाव
मोक्षमार्गमां केम आदरणीय होय? न ज होय; माटे शुभ के अशुभ कर्मने निषेधवामां आव्युं छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र के जे मोक्षनुं कारण छे ते तो ज्ञाननुं ज परिणमन छे, ते कोई रागनुं परिणमन
नथी. सम्यग्दर्शनादिनुं एकाकारपणुं ज्ञानस्वभाव साथे छे, राग साथे तेनुं एकाकारपणुं नथी. राग–पछी ते
अशुभ हो के शुभ–पण ते मोक्षमार्गने रोकनार छे. ‘स्वतत्त्व’ तेने कहेवाय के जे स्वभाव साथे सदाय
एकमेक होय. पोतानुं सत्त्व (सत्पणुं – होवापणुं) कई रीते छे ते जाण्या वगर मोक्षमार्ग साधी शकाय नहीं.
स्वतत्त्व शुं छे–तेनी ज जेने खबर नथी ते कोनी श्रद्धा करशे? कोनुं ज्ञान करशे? ने कोनामां ठरशे? रागने जे
मोक्षनुं कारण माने छे ते तो रागने ज स्वतत्त्व मानीने, तेनी ज श्रद्धा, तेनुं ज्ञान ने तेमां ज लीनता करे छे
एटले के मिथ्यात्वरूपी संसारमार्गने ज ते सेवे छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे ते तो
आत्माना ज आश्रये छे, रागनो किंचित् पण आश्रय तेमां नथी. रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग रागथी अत्यंत
निरपेक्ष छे. जेम परद्रव्यना आश्रये मोक्षमार्ग नथी, तेम रागना आश्रये पण मोक्षमार्ग नथी.
अहा, आवो सरल मार्ग!! अंतरमां जराक विचार करे तो ख्याल आवी जाय के मार्ग तो आवो ज
होय. जेम मेला रंगथी रंगाता वस्त्रनो श्वेतस्वभाव ढंकाई जाय छे, तेम रागनी रुचिथी रंगायेला जीवने
मोक्षमार्ग ढंकाई जाय छे. रागनी रुचि ते मिथ्यात्वरूपी मेल छे, तेना वडे सम्यक्त्वनो घात थाय छे.
सम्यक्त्व छे तो जीवनो स्वभाव, पण परभावनी रुचि वडे ते ढंकाई जाय छे, एटले के मिथ्यात्व थाय छे.
चिदानंदस्वभावनी रुचि करीने, उपयोगने अंतरमां वाळीने स्वज्ञेय करे ने तेमां ठरे तो तो मोक्षनो मार्ग
खूलो थाय छे, पण रागना आश्रये लाभ मानतां मोक्षमार्ग ढंकाई जाय छे. आ रीते पाप–पुण्य बंने भावो
मोक्षमार्गथी विरुद्ध होवाथी तेमने निषेधवामां आव्या छे.
जेणे मोक्ष करवो होय तेणे समस्त कर्मबंध छोडवा योग्य छे. पण, अशुभ छोडवा योग्य ने शुभ
राखवा योग्य–एवा भेदने तेमां अवकाश नथी. जराक पण बंधभावने राखवा जेवो जे माने ते जीवने
खरेखर मोक्षनो अर्थी केम कहेवाय? मोक्षनो अर्थी होय ते बंधने केम ईच्छे? भाई, एकवार तुं तारा
ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने जो खरो, के तेमां शुं रागनी उत्पत्ति थाय छे? ज्ञानना आश्रये कदी रागनी
उत्पत्ति थती नथी; अने रागनी सन्मुखताथी कदी सम्यग्दर्शनादिनी उत्पत्ति थती नथी.–आ रीते ज्ञानने अने
रागने भिन्नस्वभावपणुं छे. ज्ञानना परिणमनमां रागनो निषेध छे–––अभाव छे; ज्ञानना आश्रये जे
सम्यग्दर्शनादिनुं परिणमन थयुं तेमां पण रागनो अभाव ज छे. जेने रागनो अभाव न भासे ने रागनो
जरापण आश्रय भासे तेने सम्यक्त्वादिनुं परिणमन थयुं ज नथी. ते मिथ्याद्रष्टि छे.
जुओ, हवे गाथा १६०मां आत्मानो सर्वज्ञस्वभाव बतावीने आचार्यदेव समजावे छे के भाई, तारो
आत्मा तो सर्वज्ञताना सामर्थ्यवाळो छे पण तारा अपराधथी तारो ते स्वभाव ढंकाई गयो छे.
ते सर्वज्ञानी – दर्शी पण
निज कर्मरज –आच्छादने,
संसारप्राप्त न जाणतो
ते सर्व रीते सर्वने. (१६०)
(अनुसंधान पृ. २३)