सम्यग्ज्ञानने अने सुशीलने विरोध नथी. अंतरनो जे चिदानंदस्वभाव, तेने स्वध्येय बनावीने
शीलने विरोध नथी. अने जे ज्ञान, रागने ज ध्येय बनावीने विकारमां ज वर्ते छे ते कुशील छे, अज्ञान छे.
अज्ञानने लीधे ते विषयकषायमां ज प्रवर्ते छे, तेथी अज्ञान ते ज कुशील छे. स्वभावघरनो संग छोडीने बाह्य
विषयोमां जे ज्ञान एकतापणे वर्ते छे ते ज्ञाननी प्रकृति कुशील छे, ते अज्ञान छे. सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान तो
पोताना चैतन्यस्वभावने ज विषय बनावीने तेमां ज वर्ते छे. रागने ते पोताथी जुदो जाणे छे, एटले राग
साथे एकतारूप मिथ्यात्वनुं कुशील तेने नथी.
छूटे नहि. जेने शुभरागनी रुचि छे तेने पण अभिप्रायमां विषयोनी रुचि पडी ज छे, एटले खरेखर ते
कुशीलनुं ज सेवन करी रह्यो छे. सम्यग्ज्ञान वगर बाह्यविषयोथी विरक्त थाय–तो पण तेने सुशील कहेता
नथी, केमके रागथी तो तेना परिणाम विरक्त थया नथी. भेदज्ञान वगर रागथी विरक्ति थाय नहि, ने
रागथी विरक्ति थया वगर विषयोथी पण खरी निवृत्ति थाय नहि, माटे सम्यग्दर्शन वगर कुशीलनुं सेवन
छूटे नहीं.
जेटली स्वभावपरिणति थई तेटलुं शील प्रगट्युं, ने तेटलुं कुशील छूटयुं. अहो, निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रना
सेवननो प्रसंग आव्यो, तेमांय रागनी रुचि अने रागनुं सेवन न छोडे तो आवो अवसर एमने एम
चाल्यो जशे. भाई, सुशील एटले ‘सम्यक्प्रकृति’ तो स्वभावना सेवनमां छे, ने कुशील एटले खराब
परिणति–खोटी प्रकृति ते तो विभावना सेवनमां छे. राग करतां करतां लाभ थशे एम जे माने छे तेने
रागनुं सेवन छे, अने रागनुं जेने सेवन छे तेने कुशीलनुं ज सेवन छे. धर्मात्मा तो रागथी भिन्न
चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थईने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रवडे तेनुं ज सेवन करे छे, तेनुं ज नाम सुशील
छे.
परिणामनुं