Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म: २२०
फळ पण संसार ज छे, तो तेने सुशील केम कहेवाय? रागमात्र कुशील छे–पछी ते अशुभ हो के शुभ
हो; अशुभ अने शुभ ए बंने भावो चैतन्यस्वभावथी बाह्य प्रवृत्तिरूप छे, ने चैतन्यस्वभावथी जे
बाह्य छे ते कुशील छे. एवा शुभाशुभने पोतानुं कर्तव्य मानवुं के तेनाथी लाभ मानवो ते मोटुं
मिथ्यात्वरूपी कुशील छे.
खरेखर अज्ञान ते कुशील छे, ने सम्यग्ज्ञान ते सुशील छे. अनंत संसारना कारणरूप जे
क्रोधादिभावो तेनो जे ज्ञानमांथी अभाव न थाय ते ज्ञान कुशील छे. एकलो क्षयोपशम थाय ते ज्ञानने
खरेखर ज्ञान कहेता नथी; जे ज्ञान अंतरमां वळीने पोताना चैतन्यस्वभाव साथे केलि करे ने
परभावमां जरापण तन्मय न थाय तेने ज ज्ञान कहेवाय छे ने ते ज सुशील छे. ज्यां आवुं सम्यग्ज्ञान
छे त्यां ज शील होय छे, अने अकषाय भावरूप शील ज्ञान वगर होतुं नथी. भले ११ अंग भण्यो होय
पण जो रागादि परभावमां तन्मयपणुं न छोडे तो ते कुशील ज छे. शील एटले प्रकृति, अथवा
स्वभाव; अज्ञाननी प्रकृति शुं?–के जीवने संसारमां रखडाववो ते; तेथी अज्ञान ते कुशील छे. अने
सम्यग्ज्ञाननी प्रकृति शुं?–के जीवने कषायोथी छोडावीने मोक्ष पमाडवो ते; आवुं ज्ञान ते सुशील छे.
अज्ञान ते संसारप्रकृतिवाळुं छे ने सम्यग्ज्ञान ते मोक्षप्रकृतिवाळुं छे.
ज्यां सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां चैतन्यथी बाह्य समस्त विषयोमांथी सुखबुद्धि छूटी गई, ते विषयोने
पोताथी भिन्न जाणीने ज्ञान तेनाथी जुदुं पड्युं, ने पोताना अकषायस्वभाव तरफ वळ्‌युं. आनुं नाम सुशील
छे. जो आवुं सुशीलपणुं न होय ने बाह्य विषयोने ज ध्येय बनावीने ज्ञान प्रवर्ते तो तो बाह्य विषयोनी
मीठासथी ज्ञाननो नाश थाय छे; सम्यग्द्रष्टिने अस्थिरताना रागथी जे ईन्द्रियविषयो छे तेटली चारित्रदशा
रोकाय छे, पण अंतरमां भान छे के आ राग ते मारा स्वभावनी प्रकृति नथी, ते तो विभाव छे; एटले ते
सम्यग्द्रष्टिना श्रद्धा–ज्ञानमां तो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञाननो नाश थतो नथी. परद्रव्यनो संसर्ग छोडीने ब्रह्मस्वरूप
आत्मामां लीन थवुं ते परम ब्रह्मचर्य छे, तेने पण शील कहेवाय छे, अने व्यवहारमां स्त्री आदिना संगने
छोडवो, विषयो छोडवा ते ब्रह्मचर्यने पण शील कहेवाय छे. ते पण आमां समाई जाय छे; केम के चैतन्यने
जाणीने पछी ज्यां तेनी भावनामां रत थाय त्यां बाह्य विषयो तरफनुं वलण सहेजे छूटी जाय छे. उपयोगनी
प्रवृत्ति ज्यां निजस्वभावमां थई त्यां परभावथी ने परविषयोथी उपयोग छूटी गयो, तेनुं नाम ज सुशील
छे.
आचार्यदेव कहे छे के भाई, प्रथम तो सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति जगतमां बहु दुर्लभ छे. अने ज्ञान पाम्या
पछी पण तेनी वारंवार भावना अने अनुभव करवो तथा विषयो छोडीने चैतन्यमां ठरवुं–ते बहु दुर्लभ छे.
अतीन्द्रिय चैतन्यस्वभावनी रुचि ईन्द्रियविषयोनी रुचि छूटया वगर थती नथी, अने पछी पण ते
ईन्द्रियविषयोनो अनुराग छूटया वगर चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदमां लीनता थती नथी. बाह्य विषयो
तरफनुं वलण चैतन्यनी स्थिरताने बगाडे छे; अने जो बाह्य विषयोमां रुचि के सुखबुद्धि थई जाय तो
चैतन्यनी श्रद्धा पण बगडी जाय छे. माटे चैतन्यने स्वध्येय बनावीने तेमां एकाग्रता वडे विषयो तरफना
वलणनो त्याग ते सुशील छे.
ज्यां सुधी जीव स्वविषयने भूलीने बाह्यविषयोने ज वशीभूत वर्ते छे त्यांसुधी ते पोताना वास्तविक
ज्ञानने जाणतो नथी. अने ज्ञान वगर मात्र बाह्य विषयोनी विरक्तिथी पण कर्मनो क्षय थतो नथी.
द्रव्यलिंगी मुनि थईने बाह्य विषयो तो छोडया पण अंदरमां रागनी रुचि न छोडी–तो तेणे खरेखर
विषयोने छोडया ज नथी, ने तेने कर्मोनी निर्जरा थती नथी.
निर्जरा अधिकारमां आचार्यदेवकहे छे के, ज्ञानी नियमथी ज्ञान–वैराग्यनी शक्तिवाळो होय छे–