माह: २४८८ : २१ :
ज्ञान कला जिसके घट जागी....
ते जगमांही सहज वैरागी...
ज्ञानी मगन विषयसुखमांही
–यह विपरीत, संभवे नांही.
अहो, सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां ज्ञानकळा जागी त्यां ते आखा जगतथी वैराग्य पाम्यो आखा जगतथी
पोताना चैतन्यतत्त्वने भिन्न जाण्युं एटले तेमां क््यांय स्वप्नेय सुखबुद्धि न रही. ज्ञानी बाह्यविषयोमां सुख
मानीने तेमां मग्न थाय–एवी विपरीतता कदी संभवती नथी. सुख तो पोताना चैतन्यमां ज भास्युं छे, तेथी
तेनाथी बहार बीजे क््यांय धर्मीने तन्मयता थती नथी. ज्ञानसहित वैराग्यमां ज कर्मनो क्षय करवानी ताकात
छे.
अज्ञानी परविषयोने ईष्टरूप के अनीष्टरूप मानीने तेमां ज उपयोगने भमावे छे. ते कुशील छे.
परभावमां प्रवृत्ति ते ज कुशील छे. अने चिदानंदस्वभावने ओळखीने तेमां उपयोग प्रवर्ते ते सुशील छे.
अज्ञानी कदाचित शुभरागथी बाह्यविषयो छोडे पण तेनो उपयोग तो रागमां ज लीनपणे वर्ते छे तेथी तेने
बर्हिर्मुखवृत्तिरूप कुशीलनुं ज सेवन छे, कर्मनो क्षय करवानुं सामर्थ्य तेनामां नथी. सम्यग्ज्ञान थतां
अंतर्मुखवृत्ति थई त्यारे परभाव छूटवा मांडया ने कर्मो खरवा मांडया. आ कर्मनो क्षय करवानुं ज्ञाननुं ज
सामर्थ्य छे, शुभरागनुं सामर्थ्य नथी. सम्यग्ज्ञान ज सुशील छे, अज्ञानी शुभराग करे तो पण तेने सुशील
नथी कहेता.
अहो, सम्यक्श्रद्धा ने सम्यग्ज्ञान वगर संयम के तप बधुं निरर्थक छे. अने सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान पछी
चारित्रदशा महाप्रयत्नथी थाय छे. सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान सहितनुं चारित्र भले थोडुंक होय तो पण तेनुं फळ
महान छे. अने सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान वगर गमे तेटलुं आचरण करे तो पण ते निरर्थक छे.
शास्त्र द्वारा एम ख्यालमां आव्युं के आत्मानो ज्ञानस्वभाव ज उपादेय छे, ने रागादि समस्त
परभावो हेय छे,–आवुं हेय–उपादेयनुं जाणपणुं थवा छतां जो अंतरमां ज्ञानने स्वसन्मुख करीने स्वभावनुं
ग्रहण अने परभावनो त्याग न करे तो तेनुं जाणपणुं निरर्थक छे. परिणतिमां स्वभावनुं वेदन न थाय अने
रागना वेदनथी जुदुं न पडे तो ते ज्ञान खरेखर ज्ञान नथी; स्वभावना ग्रहणरूप ज्ञान अने रागना
त्यागरूप वैराग्य वगर बाह्य भेख के जाणपणुं ते व्यर्थ छे.
पहेलां स्वभाव शुं अने विभाव शुं तेनुं सम्यक् भेदज्ञान थवुं जोईए. भेदज्ञान सहित थोडुंक पण
आचरण थाय–एटले के थोडीक पण स्वरूपस्थिरता थाय तोपण तेनुं फळ महान छे. अने भेदज्ञान वगर गमे
तेटला शुभ आचरण करे तोपण धर्मने माटे ते निष्फळ छे. माटे अज्ञानपूर्वकना जेटलां आचरण छे ते बधांय
कुशील ज छे. शुभ आचरण करतां करतां निर्विकल्प सम्यग्दर्शन थई जशे एम मानीने जे रागने सेवे छे ते
कुशीलने सेवे छे, तेनुं ध्येय ज खोटुं छे, ने मिथ्यात्व सहितनो अनंतानुबंधी कषाय तो तेने वर्ती ज रह्यो छे.
अंतरमां सम्यग्ज्ञान वडे निर्दोष चैतन्यने ध्येय बनावीने तेनुं ग्रहण कर्या वगर विषयकषायोनो त्याग थाय
ज नहीं. अतीन्द्रिय चैतन्यना आनंदनुं वेदन थतां ईन्द्रियविषयोनुं अवलंबन छूटी जाय छे, तेनुं नाम
सम्यक्शील छे. बहारमां स्त्री आदिनुं अवलंबन छोडयुं पण अंदरमां रागनुं अवलंबन न छोडयुं,
शुभरागना अवलंबनथी लाभ थशे एवी बुद्धि न छोडी तो ते जीवे विषयो छोडया ज नथी, बाह्य विषयोना
ज अवलंबननी बुद्धि तेने पडी छे. ज्ञानी तो पोताना आत्माने सर्व बाह्य पदार्थोना अवलंबनथी रहित,
रागना पण अवलंबनथी रहित, ज्ञानमात्र भावमय जाणे छे सम्यग्दर्शन–ज्ञानरूप निर्मळभाव प्रगट्यो ते
अतीन्द्रियस्वभावना अवलंबने ज प्रगट्यो छे, तेमां रागनुं के बाह्यविषयोनुं अवलंबन छूटी गयुं छे, तेनुं
नाम सम्यक् शील छे.
ज्यां सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां महाप्रयोजनरूप एवा स्वज्ञेयने जाण्युं, अनंतानुबंधी