थतो जाय छे. सौथी पहेला वेदन वखते उत्पत्तिकाळमां तो नियमथी निर्विकल्प शुद्धउपयोग होय छे;
पछी ते निरंतर न होय छतां शुद्धपरिणति तो सदाय चालु ज रहे छे. सम्यग्दर्शनना उत्पत्तिकाळे
शुद्धोपयोगनुं अविनाभावीपणुं छे, पण सम्यग्दर्शननी साथे निरंतर शुद्धोपयोग होय ज–एवो नियम
नथी; नहितर तो पर तरफ उपयोग जाय त्यारे सम्यग्दर्शन रहे ज नहि. सम्यग्दर्शननी साथे
शुद्धोपयोग सदाय होय ज–एम नथी, परंतु सम्यग्दर्शन साथे शुद्धपरिणति तो सदाय होय ज छे.
नथी; तेमज एकला मंदकषायथी–अशुभपरिणामने रोकवाथी कांई विज्ञानघनपणुं थतुं नथी. एटले
जीव ज्यारे स्वभाव–सन्मुख थईने तेनी सम्यक्प्रतीति करे छे त्यारे तेने आस्रवो अने आत्मानुं
यथार्थ भेदज्ञान थाय छे, त्यारे ते विज्ञानघन थाय छे अने आस्रवोथी छूटो पडे छे. आ रीते एक
क्षणमां ज ज्ञाननी अस्ति ने आस्रवोनी नास्तिरूप परिणमन ज्ञानीने वर्ते छे: आवा परिणाम वडे ज
ज्ञानी ओळखाय छे.
ठरतुं जाय तेम तेम आत्मा विज्ञानघन थतो जाय छे; जेटलो विज्ञानघन थाय छे तेटलो आस्रवोथी
छूटतो जाय छे, अने जेटलो आस्रवोथी छूटे छे तेटलो विज्ञानघन थाय छे. सम्यग्ज्ञान पहेलां जीवने
अंशे पण आस्रवोथी निवृत्ति कहेवामां आवती नथी ने जरापण विज्ञानघनपणुं कहेवातुं नथी. भले
पंचमहाव्रत पाळे, हिंसा करे नहि, जूठुं बोले नहि, छतां अज्ञानीने अशुभ आस्रवोथी पण निवृत्ति
थई–एम कहेता नथी; ते आस्रवोमां ज वर्ते छे. तेमज भले ११ अंग भण्यो होय छतांय अज्ञानीने
जराय विज्ञानघनपणुं थयुं नथी, ते अज्ञानी ज छे. जेणे हजी आत्मा अने आस्रवोने भिन्न जाण्या ज
नथी, बंनेना स्वादनी भिन्नता जाणी नथी, ते जीव आस्रवोथी पाछो कई रीते वळशे? ते तो
रागादिने अने ज्ञानने एकमेक स्वादपणे अनुभवतो थको अज्ञानीपणे आस्रवोमां ज वर्ते छे.–आ
अज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न छे. ते अज्ञानी अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ छे अने प्रौढ विवेकवाळा
निश्चयमां अनारूढ छे. ज्ञानी धर्मात्मा प्रौढ विवेक वडे शुद्धनिश्चयमां आरूढ थया छे ने व्यवहारनो
आश्रय छोडी दीधो छे. जुओ तो खरा, आ ज्ञानी अने अज्ञानीनी अंतर परिणतिमां केटलो फेर छे!
एक तो शुद्धज्ञानमां तन्मयपणे परिणमे छे, अने बीजो रागादि परभावोमां तन्मयपणे परिणमे छे.
अंदरना वेदनमां ज्ञान अने रागनी भिन्नता भासवी जोईए. त्यारे भेदज्ञान अने विज्ञानघनपणुं
थाय. आ “भेदज्ञान” ते विकल्परूप नथी, तेमां निर्विकल्प श्रद्धा, स्वसन्मुख ज्ञान, अने अंशे
स्थिरता–ए त्रिपुटी समाई जाय छे; शुद्धनिर्विकल्प रत्नत्रयने पण “भेदज्ञान” कहेवामां आवे छे. हे
जीव! अंदरनी शांत–निर्विकल्प ज्ञानगूफामां प्रवेश कर तो तने आनंदना वेदन सहित सम्यग्दर्शन अने
भेदज्ञान थाय.
थयुं छे के हवे रागादिनो अंशपण कदी मने मारा स्वभावपणे भासवानो नथी. आम ज्ञानी पोतानुं
तो स्वसंवेदनथी