जाणे, अने सामा जीवनो पण निर्णय करी शकाय छे के आ जीव रत्नत्रयरूपे परिणमेलो छे माटे
जरूर भव्य ज छे. धवलामां पण आ द्रष्टांत आप्युं छे. मतिज्ञाननी निर्मळतानी पण अचिंत्य
ताकात छे. पोतानी के परनी खबर पडी शके नहि–एम माने ते तो मूढता छे. जुओने, ज्ञानीने
जातिस्मरण थाय त्यां ख्याल आवी जाय के अत्यारे आ शरीरमां रहेलो जीव पूर्वे मारो संबंधी
हतो.–कई रीते ते खबर पडी? पूर्वनुं शरीर अने अत्यारनुं शरीर तो एकदम बदली गयुं छे, छतां
मतिज्ञाननी निर्मळतामां सामा जीवनो निर्णय थई जाय छे के आ जीव पूर्वे अमुक–भवमां अमुक
ठेकाणे मारो संबंधी हतो. जुओ तो खरा, ज्ञाननी निर्मळतानी ताकात!! जातिस्मरणनी पण
आटली ताकात, तो पछी अंदरना स्वसंवेदनथी आत्मानो जे अनुभव थयो तेनी निःशंकतानी शी
वात!! तेनी तो पोताने खबर पडे....पडे....ने पडे; तेमज बीजाने पण परीक्षाथी ओळखी ल्ये.
तेना ज्ञानपरिणामने एकवस्तुपणुं होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे, परंतु चैतन्यस्वभावी आत्माने राग
साथे एकवस्तुपणुं नथी पण भिन्नता छे, तेथी तेमने कर्ताकर्मपणुं नथी. रागादिने खरेखर
शुद्धद्रष्टिथी आत्मा साथे व्याप्य–व्यापकपणुं नथी पण पुद्गल साथे व्याप्य–व्यापकपणुं छे. विकारमां
कोण व्यापे? विकारपणे कोण विस्तरे? शुद्धआत्मा कदी विकारमां व्यापतो नथी, शुद्धआत्मा विस्तार
पामीने–फेलाईने विकारमां जाय–एम बनतुं नथी. शुद्धआत्मा फेलाईने–विस्तरीने पोतानी
निर्मळपर्यायमां ज व्यापे छे. विकारमां शुद्धआत्मा व्यापक नथी माटे शुद्धआत्मानी द्रष्टिमां तो
पुद्गल ज तेमां व्यापक छे. शुभराग–जेने अज्ञानी व्यवहार कहे छे ने मोक्षनुं साधन कहे छे, ते
शुभरागमां शुद्धआत्मानुं अस्तित्व ज नथी, तेमां आत्मा व्याप्यो ज नथी, तो ते मोक्षनुं साधन केम
थाय? अहीं तो कहे छे के ते शुभराग आत्मानुं कार्य छे ज नहि; जे शुभरागने आत्मानुं कार्य माने
ते अज्ञानी छे. ते राग पर्यायद्रष्टिए तो आत्मानी पर्यायमां थाय छे, पण तेनी साथे
चैतन्यस्वभावनी एकता नथी एटले चैतन्यस्वभावनुं कार्य ते नथी. अहो, आवो चैतन्यस्वभाव
ज्यां द्रष्टिमां लीधो त्यां जीव मुक्त थयो.
आत्मा उल्लासथी ऊछळीने जागे छे. लौकिकमां माता हालरडावडे पोताना बाळकना गुणगान करीने
तेने सूवडावे छे, अहीं लोकोत्तर श्रुतिमाता चैतन्यना शांतरसना हालरडां गाईने तेने जगाडे छे.
जाग रे जाग! विभावमां अनादिनो सूतो छो, ते विभाव तारुं स्वरूप नथी, तारुं स्वरूप निर्विकार–
चैतन्यमय छे. आवा आत्माना गाणां सांभळीने कोण न जागे?–कोण चैतन्य तरफ न वळे? सर्वज्ञ
भगवंतो अने संतो स्पष्ट भेदज्ञान करावीने विकारथी जुदो शुद्धआत्मा देखाडे छे. विकारमां तो
पुद्गल ज छे, विकारमां आत्मा नथी,–कई द्रष्टिए? शुद्धआत्मानी द्रष्टिए. शुद्धआत्मा तरफ जे
वळ्यो तेने विकारनुं कर्तृत्व छूटी गयुं, जे पर्याय शुद्धस्वभाव तरफ वळी ते पर्यायमांथी पण
विकारनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे. आवी ज्ञानपर्याय ते ज ज्ञानीनुं कार्य छे ने एवा कार्यवडे ज ज्ञानी
ओळखाय छे. आ ज ज्ञानीने ओळखवानुं खरुं चिह्न छे. आ सिवाय एकला बाह्य चिह्नोथी ज्ञानी
ओळखाता नथी.