समजाव्युं छे. तेना उपरना प्रवचनमांथी आ दोहन कर्युं छे.
आ देहमां रहेलो चैतन्यप्रभु, बेहद ज्ञान–आनंदनी प्रभुताथी भरेलो, तेनुं अंतरभान करीने,
ज्ञानीने धर्मधारा चाली, ते धारा एवी अतूट छे के शुभाशुभ परिणाम वखतेय ज्ञानधारा छूटती नथी.
शुभाशुभ वखतेय तेनाथी भिन्नपणे ज ज्ञानधारानो प्रवाह धर्मीने चाल्यो जाय छे. शुद्धउपयोग न
होय त्यारे पण धर्मीने ज्ञानधारा तो चालु ज छे, तेनुं ज्ञान अज्ञानरूप थई गयुं नथी. अने पछी ज्यारे
उपयोग अंतरमां ठरे ने श्रेणी मांडे त्यारे तो शुद्धोपयोगनी धारा चाले छे, ने अंतमुहूर्तमां केवळज्ञान
प्रगटे छे.
एवा रागादि ते खरेखर ज्ञानीनुं कार्य नथी. ज्ञानीनुं कार्य तो ज्ञानमय ज होय, ज्ञानीनुं कार्य रागमय केम
होय? ज्ञानीने शुद्धात्माना अनुभवपूर्वक जे ज्ञानधारा प्रगटी ते धारा हवे ज्ञानने अज्ञानरूप थवा देती नथी.
स्वरूपमां निर्विकल्प उपयोग तो गणधरदेव जेवाने पण अंतर्मुहूर्त करतां वधारे रहेतो नथी. पण ज्ञाननी
सम्यक्धारा तो सविकल्पदशामांय सतत चालु रहे छे; समकिती गृहस्थनेय ज्ञानधारा सतत वर्ते छे.
आव्या विना केवळज्ञान लीधे छूटको.–एवी दशा समकिती गृहस्थने के स्त्रीने पण होय छे. ने आवी
ज्ञानधारा ते संवर छे, तेनाथी बंधन अटकी जाय छे.
थवाथी शुद्धात्मानी अनुभूति थाय छे; ने एवी अनुभूति थतां आत्मा समस्त परद्रव्यो अने समस्त
परभावोथी दूर वर्ते छे; अचलितपणे ज्ञानमहिमामां रहेतां