Atmadharma magazine - Ank 222
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 25

background image
: १४ : आत्मधर्म : २२२
धा..रा..वा..ही..
ज्ञा..न
भेदज्ञानी धर्मात्माने धारावाहीज्ञान केवुं होय छे–तेनुं
अचिंत्य महिमावंत स्वरूप संवर अधिकारमां घणुं ज सरस
समजाव्युं छे. तेना उपरना प्रवचनमांथी आ दोहन कर्युं छे.
साथे साथे, एवुं भेदज्ञान प्रगट करवा माटे मुमुक्षुजीवे
सततपणे केवो प्रयत्न करवो–ते पण प्रवचनमां दर्शाव्युं छे.

आ देहमां रहेलो चैतन्यप्रभु, बेहद ज्ञान–आनंदनी प्रभुताथी भरेलो, तेनुं अंतरभान करीने,
रागथी भिन्न चैतन्यभगवानना भेटा करवा ते अपूर्व संवरधर्म छे. ज्यां आवुं अंतरभान कर्युं त्यां
ज्ञानीने धर्मधारा चाली, ते धारा एवी अतूट छे के शुभाशुभ परिणाम वखतेय ज्ञानधारा छूटती नथी.
शुभाशुभ वखतेय तेनाथी भिन्नपणे ज ज्ञानधारानो प्रवाह धर्मीने चाल्यो जाय छे. शुद्धउपयोग न
होय त्यारे पण धर्मीने ज्ञानधारा तो चालु ज छे, तेनुं ज्ञान अज्ञानरूप थई गयुं नथी. अने पछी ज्यारे
उपयोग अंतरमां ठरे ने श्रेणी मांडे त्यारे तो शुद्धोपयोगनी धारा चाले छे, ने अंतमुहूर्तमां केवळज्ञान
प्रगटे छे.
सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी ज ज्ञाननी धारा सम्यक्पणे वर्ते छे, राग अने विकल्प होवा छतां तेनाथी
भिन्नपणे ज्ञानधारा वर्ते छे. आवी ज्ञानधारामां अशुद्धतानो अने कर्मनो अभाव छे.
‘हुं शुद्धज्ञान छुं’–एवा ज्ञानमयभावपणे जे ज्ञान परिणम्युं तेमां हवे वच्चे रागादि नहि आवे. राग
जुदा ज्ञेयपणे रहेशे पण ज्ञान तेमां तन्मय नहि थाय. आ रीते ज्ञानीने ज्ञानमयभावो ज थाय छे. अज्ञानमय
एवा रागादि ते खरेखर ज्ञानीनुं कार्य नथी. ज्ञानीनुं कार्य तो ज्ञानमय ज होय, ज्ञानीनुं कार्य रागमय केम
होय? ज्ञानीने शुद्धात्माना अनुभवपूर्वक जे ज्ञानधारा प्रगटी ते धारा हवे ज्ञानने अज्ञानरूप थवा देती नथी.
स्वरूपमां निर्विकल्प उपयोग तो गणधरदेव जेवाने पण अंतर्मुहूर्त करतां वधारे रहेतो नथी. पण ज्ञाननी
सम्यक्धारा तो सविकल्पदशामांय सतत चालु रहे छे; समकिती गृहस्थनेय ज्ञानधारा सतत वर्ते छे.
निर्विकल्प उपयोगनी श्रेणी (सातमा गुणस्थानथी उपरनी दशा) अहीं आ काळना जीवोने नथी,
पण सम्यग्ज्ञाननी अप्रतिहतधारा अत्यारना कोई–कोई जीवोने छे; एवुं धारावाही ज्ञान के वच्चे अज्ञान
आव्या विना केवळज्ञान लीधे छूटको.–एवी दशा समकिती गृहस्थने के स्त्रीने पण होय छे. ने आवी
ज्ञानधारा ते संवर छे, तेनाथी बंधन अटकी जाय छे.
संवर कया प्रकारे थाय छे, जेने संवर प्रगट्यो होय ते आत्मानी दशा केवी होय छे?–ए समजवानी
जेने धगश छे एवा जीवने आचार्यदेव समजावे छे: भेदज्ञाननी शक्तिवडे निजस्वरूपना महिमामां लीन
थवाथी शुद्धात्मानी अनुभूति थाय छे; ने एवी अनुभूति थतां आत्मा समस्त परद्रव्यो अने समस्त
परभावोथी दूर वर्ते छे; अचलितपणे ज्ञानमहिमामां रहेतां