Atmadharma magazine - Ank 222
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८८ : १प :
एवा ते आत्माने जरापण कर्मबंधन थतुं नथी ने कर्मथी छूटकारो थाय छे. आ रीते सर्वकर्मना संवरनुं मूळ
भेदज्ञान ज छे. पहेलां तो ज्ञान अने शुभाशुभभावो वच्चेनुं अत्यंत भेदज्ञान करवुं जोईए.
शुभाशुभरागना एक अंशने पण ज्ञान साथे न भेळववो, ज्ञानने समस्त रागथी अत्यंत जुदुं अनुभववुं,–
आवा भेदज्ञान वगर शुभाशुभआस्रवो कदी अटके नहीं.
शुभाशुभनी उत्पत्तिनुं मूळ कांई ज्ञान नथी, ज्ञानमांथी शुभाशुभभावोनी उत्पत्ति थती नथी.
शुभाशुभनी उत्पत्ति तो रागद्वेषमोहथी ज थाय छे, तेथी रागद्वेषमोह ते ज शुभाशुभनी उत्पत्तिनुं मूळ छे.
अने भगवान आत्मा ज्ञानमूर्ति छे ते तो ज्ञान–आनंदमय भावोनी उत्पत्तिनुं मूळ छे, तेना अवलंबनने
शुद्धज्ञानमयभावोनी ज उत्पत्ति थाय छे. जेम आंबा अने आकोलिया बंनेना मूळिया ज जुदा छे, तेम
अमृतरूप ज्ञान अने आकूळतारूप आस्रवो ए बंनेना मूळिया ज जुदा छे.–एम मूळमांथी बंनेनुं अत्यंत
भेदज्ञान करीने, ज्यारे आत्मा आत्माना ज अवलंबनमां स्थिर थाय छे त्यारे सहज एक ज्ञानने ज
अनुभवतो थको ते आत्मा रागादि परभावोथी अत्यंत दूर वर्ते छे–अत्यंत जुदो वर्ते छे, एटले रागादिना
अभावमां तेने शुभाशुभआस्रवनो निरोध थाय छे, ने ते आत्मा सर्व कर्मथी मुक्त थाय छे. आ रीते
भेदज्ञानवडे शुद्धात्मानुं अवलंबन करवुं ते ज संवरनी रीत छे. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी आवा संवरनी धारा
शरू थई गई.
जुओ, आ मिथ्यात्वना झेर उतारवाना मंत्रो! अहो, आ ‘समयसार’ एटले वर्तमानमां साक्षात्
तीर्थंकरदेवना दिव्यध्वनिनो सार! एमां तो मंत्रो भर्यां छे....जे मंत्र एक क्षणमां ज्ञान अने रागनी एकताने
तोडीने अत्यंत जुदा करी नाखे. साधकनी ज्ञानधारा केवी होय ते अलौकिक रीते आचार्यदेवे ओळखाव्युं
छे.
राग अने ज्ञानना एकत्वनी बुद्धिथी जीव शुभाशुभभावोने ज करतो थको संसारमां परिभ्रमण करी
रह्यो छे. पण ज्यां प्रज्ञाछीणी वडे भेदज्ञान करीने ज्ञान अने रागने अत्यंत जुदा पाडया त्यां एक
ज्ञानमयभावने ज पोतानो अनुभवतो थको धर्मीजीव रागादिपरभावोने जरापण पोताना अनुभवतो नथी,
तेनाथी भिन्न ज्ञानधारापणे ज ते परिणमे छे. ते ज्ञानधारामां कर्मनो प्रवेश नथी. आ रीते ज्ञानधारावडे ज
संवर थाय छे. ज्यां सुधी पोताना अनुभवमांथी रागादि आस्रवोने जुदा न पाडे त्यां सुधी आस्रवो अटके
नहि ने संवर थाय नहि.
अपूर्व पुरुषार्थथी जेणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं छे–एवा ज्ञानीनुं ज्ञान रागादिकथी जुदुं ज परिणमे छे;
तेनुं ज्ञान कदी राग साथे एकमेक थतुं नथी. तेनी ज्ञानधारा अप्रतिहतभावे आगळ वधीने केवळज्ञान लेशे.
ज्ञानीनो जे भाव चिदानंदस्वभाव तरफ वळ्‌यो ते भाव ज्ञानमय छे, तेमां राग–द्वेष–मोह नथी. स्वभाव
तरफना परिणमननी धारामां विभाव केम होय? रागथी छुटो पड्यो त्यारे तो उपयोग अंतरमां वळ्‌यो.
अंतरमां वळीने उपयोगे राग साथेनी एकता तोडी ते तोडी, हवे फरीने (बहारमां उपयोग जाय त्यारे पण)
कदी ते एकता थवानी नथी. जेम वीजळी पडे ने पर्वतना कटका थाय–ते फरीने संधाय नहि तेम भेदज्ञानरूपी
वीजळीना झबकारावडे ज्ञानीने ज्ञान अने रागनी एकता तूटी ते फरीने संधावानी नथी. अहा, अंतरमां
भेदज्ञानवडे ज्यां परमात्मानो भेटो थयो त्यां हवे पामर जेवा परभावो साथे संबंध कोण राखे? रागथी
जुदी ज्ञानधारा उल्लसी ते उल्लसी, हवे परमात्मपदने भेटये छुटको.
जुओ तो खरा, स्वभावद्रष्टिनुं जोर! पंचमकाळना मुनिराजे पण क्षायिक जेवा अप्रतिहत धारावाही
भेदज्ञानीनी आराधना बतावी छे. ज्ञानीनी ज्ञानधारामां वच्चे आस्रव नथी. अहा, आवा अंतरमां
वीरताथी कबुलात आपवी जोईए. ज्ञानी उग्रधारावडे जे मोहनो नाश करवा ऊभो थयो तेना पग ढीला
होय नहीं, तेने पुरुषार्थमां संदेह पडे नहि, ए वीरहाकथी मोक्षने साधवा नीकळ्‌यो, तेनी आराधना वच्चे तूटे
नहि. एकवार परिणति अंतरमां वाळीने चैतन्यमां भळी ने