Atmadharma magazine - Ank 222
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८८ : १७ :
प्रयत्नथी जरूर तने आनंद सहित तारो आत्मा रागादिथी अत्यंत जुदो अनुभवमां आवशे.
अहा, जुओ तो खरा! आचार्यदेवे केवुं सरस समजाव्युं छे!! आत्माना अनुभवनी केवी सरस
प्रेरणा आपी छे! भाई, तारी वस्तु तारा अंतरमां छे, तेनी सन्मुख प्रयत्न करतां ते प्राप्त थया वगर
रहे नहि.
हे भाई! तुं बहारनी चिंता कर तोपण तेनुं जे थवानुं छे ते ज थवानुं छे, ने तुं तेनी चिंता न
कर तोपण तेनुं कांई अटकी जवानुं नथी. माटे तेनी चिंता छोडीने चैतन्यना चिंतनमां तारा उपयोगने
जोड. बहारना अनंतकाळना प्रयासे कांई हाथ न आव्युं, एक रजकण पण तारो न थयो छतां तेमां ज
लाग्यो रहे छे ने आकुळताना दुःखने भोगवे छे–ए तो मोटा दरिया भराई एवडी मुर्खाई छे.
बहारना प्रयत्ननो अनंतकाळ निष्फळ गयो, पण जो अंतरमां चैतन्यनी प्राप्तिनो प्रयत्न करे तो
अंतर्मुहूर्तमां तेनी प्राप्ति थाय, ने सादि अनंतकाळ सुखनुं वेदन थाय. स्वसन्मुख अभ्यास वडे
स्वरूपनी प्राप्ति जरूर थाय छे. परनी तो प्राप्ति न थाय, अने प्राप्ति थाय तोपण तेमांथी सुख तो
प्राप्त थतुं ज नथी; पोतानी वस्तु पोतानी पासे छे, जो चेतीने–जागृत थईने जुए तो पोतानुं स्वरूप
मोजुद छे ते पोताना वेदनमां आवे छे, ने ते स्वसंवेदन आनंदरूप छे. भाई, आनंदनी प्राप्तिनो उपाय
तो आ छे उत्कृष्टभावथी प्रयत्न करतां अंतर्मुहूर्तमां अज्ञाननो पडदो तोडी नांखीने, स्वस्वरूपना
अनुभववडे केवळज्ञान प्रगट थाय छे, तो पछी सम्यग्दर्शन तो सुगम छे. पण शिष्यने बहु कठण लागतुं
होय तो वधुमां वधु छ महिनानो समय लागवानुं कह्युं छे. निष्प्रयोजन कोलाहल छोडीने स्वरूपना
प्रयत्नमां लागवाथी छ महिनामां जरूर तेनी प्राप्ति थाय छे.–बधाने छ महिना लागे एम नथी, कोई
४९ दिवसमां पण पामी जाय छे, ने पामनारा अंतर्मुहूर्तमां पण पाम्या छे. अंतर्मुख सम्यक् प्रयत्न करे
के तत्काळ तेनी प्राप्ति थाय छे. जीवमां अचिंत्य ताकात छे, ज्यारे पोतानी ताकातने फोरवीने ते
अंतर्मुख थाय छे त्यारे सम्यग्दर्शनादि पामे छे, तेमां बीजुं कोई कारण नथी, ते अकारणीय छे. अंतरमां
ज परमात्मापद बिराजी रह्युं छे पण पोतानी नजरनी आळसे (द्रष्टिना दोषे) पोते पोताने देखतो
नथी. आचार्यदेव अने ज्ञानी संतो फरी फरीने मीठासथी कहे छे के हे भव्य! बीजी बधी चिंताने छोडीने
एक चिदानंदतत्त्वनी प्राप्तिना प्रयत्नमां तारा उपयोगने जोड....के जेथी तुरतमां ज तने तारो आत्मा
अनुभवमां आवशे. प्रवचनसारमां तो छेल्ले कहे छे के अहो जीवो! आ ज्ञानानंदस्वरूप तत्त्वने तमे
आजे ज देखो.....आजे ज आवा आत्माने अनुभवो.
ज्ञान–आनंदमय भेदज्ञानज्योति सदाय विजयवंत छे, ते सादिअनंत जयवंत वर्ते छे. जेणे
भेदज्ञान प्रगट कर्युं तेणे आत्मामां विजयना माणेकस्थंभ रोप्या.
अंतरमां आत्मार्थीपणुं ऊग्या वगर चैतन्यना पत्ता खाय नहि. भाई, चैतन्यथी ज कोई
अचिंत्य छे; तारी चैतन्यसत्ता रागमां ढंकाई गई नथी, रागथी जुदी ने जुदी तारी चैतन्यसत्ता छे.
अज्ञानथी चैतन्यनुं ने रागनुं एकपणुं भास्युं हतुं पण भेदज्ञानना अभ्यासवडे बंनेनी अत्यंत
भिन्नता अनुभवमां आवे छे. ज्ञान अने रागनी भिन्नताना तीव्र अभ्यासवडे भेदज्ञान थाय त्यारे
जीवने अतीन्द्रिय आनंदसहित एम अनुभवाय छे के आ ज्ञान छे ते ज हुं छुं, ने जे रागादि छे ते जड
तरफनो भाव छे, मारा चैतन्यभाव साथे तेने जरापण आधार आधेयपणुं नथी. चैतन्यभाव तो शांत–
अनाकुळ छे ने राग तो आकुळता–कलेशरूप छे.–आवुं भेदज्ञान ते संवरनो उत्कृष्ट उपाय छे. संवर
अधिकारनी शरूआतमां तेने अभिनन्दीने,–तेनी प्रशंसा करीने आचार्यदेवे भेदज्ञाननो महिमा कर्यो छे,
अने कह्युं छे के अहो, आवुं भेदज्ञान अछिन्नधाराथी निरंतर भाववा योग्य छे. भेदज्ञानी धर्मात्मा
पोताना ज्ञानने रागथी भिन्न ज अनुभवे छे, अणु मात्र पण राग तेने स्वभावपणे अनुभवतो नथी.
आवुं भेदज्ञान थतां निजभावने पामीने आत्मा परम आनंदित थाय छे, कदी नहि थयेलुं एवुं रागथी
भिन्न ज्ञाननुं अपूर्व वेदन थयुं ते आनंदरूप छे. आनंदमां झूलता आचार्यदेव कहे छे के हे सत्पुरुषो!
आवुं भेदज्ञान