Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४८८: आत्मधर्म : ९ :
३. आत्मा एक सेकन्डना असंख्यमां भागमां परिपूर्ण ज्ञान–आनंदथी
भरेलो छे. वर्तमान ज्ञानने रागथी खसेडी अंतर अभेदस्वभाव सन्मुख करे तेने
सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. व्यवहारनयनो विषय भेद अने राग छे तेना आधारे
सम्यग्दर्शन त्रणकाळमां थई शके नहि.
४. अहिंसा परमोधर्म कोने कहेवाय? पुण्यनी–रागनी रुचि होय तेने
अहिंसा होय नहि; दया, दान, सेवा, भक्तिना विकल्प ऊठे ते राग छे, धर्म नथी.
बीजाने नहि मारवाना, दान देवाना वगेरे शुभभाव पुण्य तत्त्व छे. मारवा के
हेरान करवाना भाव ते पापभाव छे, ते बन्ने मलिनभाव छे. पुण्य–पापनी
लागणीमां एकत्वबुद्धि करवी ते हिंसा छे, तेमां एकाग्र थये अहिंसाधर्म थाय
नहि. धर्मीजीवने भूमिकानुसार शुभाशुभभाव आवे छे; पण तेने ते बंधनुं कारण
माने छे.
प. हुं जीव छुं, अजीव माराथी भिन्न छे. ए बधी विकल्पदशाने ओळंगी
अंदर शुद्धचिदानंदने स्पर्शे, लक्षमां लई एकाकार थई अनुभवे ते धर्मनुं प्रथम
सोपान छे.
६. एक समय पण जो धर्म समजाय तो संसार तूटया विना रहे नहि, पूर्ण
चैतन्य प्रकाशने द्रष्टिमां पकडी तेमां एकाग्र थतां एकक्षणमां संसारनो नाश थाय छे.
ध्रुवस्वभावमां पुण्यपापनो प्रवेश नथी. शुद्धनयना विषयभूत शुद्धआत्मानुं श्रद्धान
करे ते सम्यग्दर्शन छे. ध्रुवस्वभावनी द्रष्टि थई त्यारथी श्रद्धा अपेक्षाए ते संसारथी
–व्यवहारनी रुचिथी मुक्त ज छे.
७. जेम अग्नि तृणाग्नि, पांदडानी अग्नि, लाकडानी अग्नि एम निमित्तना
कारणे अनेक प्रकारे ओळखाय छतां अग्नि तो एक ज प्रकारे छे, तेम व्यवहारनय
नवतत्त्वना भेदवडे आत्माने अनेक प्रकारे ओळखावे छे पण शुद्धनयथी जोतां
आत्मामां चैतन्यज्योतिपणुं सदाय एकरूप छे. देह; ईन्द्रियो अने पुण्यपापनी
लागणीथी पार आत्मा पूर्णज्ञानघनपणे ज सदा प्रकाशमान छे, पण रागनी क्रिया
उपर जेनी द्रष्टि छे तेने ते ज्ञानस्वरूपे देखातो नथी.
८. ‘तरणा ओथे डुंगर रे, डुंगर कोई देखे नहि.’ आंख आडुं तणखलुं
राखे तो सामे आखो पहाड होवा छतां ते देखाय नहि, तेम एकला नवतत्त्वना
विकल्पनी आडमां एटले के व्यवहारना प्रेममां पूर्ण चैतन्यस्वरूपी आत्मा छे,
छतां ते देखातो नथी एटले के प्रतीतिमां–अनुभवमां ते आवतो नथी. भगवान
आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप चैतन्यबिम्ब छे, नवतत्त्वना विकल्पवडे ते अनेकरूप
देखावा छतां रागादिरूपे नथी. शरीररूपे नथी तथा तेने आधीन पण नथी.
९. जेम पाणीमां मीठुं होय ते आंखवडे अथवा हाथवडे जुदुं न अनुभवाय छतां