Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म वैशाख : २४८८
चाखवाथी अने उकाळवाथी पाणीथी भिन्न अने खाराशमात्रथी एकाकारपणे
ते अनुभवी शकाय छे तेम आत्मा शुद्धनयवडे देह अने रागादिथी जुदो
अनुभवी शकाय छे–तेवी अंतरद्रष्टि थवी ते सम्यग्दर्शन छे.
१० भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं।। १३।।
भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव, वळी पुण्य–पापने आस्रव, संवर,
निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे. १३
शुद्धनयथी जाणेला जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा,
बंध अने मोक्ष सम्यक्त्व छे. आ जीवादि नवतत्त्वोमांथी अनादि–अनंत एक
ज्ञायकस्वभावने जुदो तारववो ते भूतार्थथी (निश्चयथी) सम्यग्दर्शन छे.
आत्माने ज जीव कहेवाय छे, ज्ञान, दर्शन, सुख अने सत्ता
(–अस्तित्व) रूपी भावप्राणवडे टकवानी अपेक्षाए तेने जीव कहेवाय छे;
अने अततीति–गच्छतीति–सदाय जाणे अने परिणमे छे ते अपेक्षाए तेने
आत्मा कहेवाय छे. आत्मा शक्ति अपेक्षाए शुद्ध छे पण वर्तमानदशामां
विकार छे. जो वर्तमानदशामां पण ते तद्रन शुद्ध होय तो तेने परमानंदनो
प्रगट अनुभव होवो जोईए.
११. आत्मा त्रिकाळ ज्ञानानंद शांतरसथी पूर्ण छे, व्यवहारनयथी तेने
नवतत्त्वना अनेक भेदरूपे बताव्यो छे, ते नवमांथी शुद्धनयवडे तेनो
(पूर्णज्ञानघन स्वभावनो) अभेद–एकरूप अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे.
सम्यग्दर्शननो विषय जे त्रिकाळी आत्मा छे तेने जाण्या विना, अनुभव कर्या
विना शुद्धतानुं थवुं, वधवुं के टकवुं, बने नहि.
१२. हुं जीव छुं, माराथी भिन्न बीजा अनंत जीव–अजीव छे ते
तेनाथी छे, माराथी नथी. तेनां द्रव्य, गुण, पर्याय तेनाथी छे, तेनामां छे.
तेमां मारो बिलकुल अधिकार नथी. जडनुं, शरीरनुं, हाथपगनुं काम
आत्मा करी शके नहि, केमके ते अजीव–जडपदार्थ सत–विद्यमान जगतनां
स्वतंत्र–तत्त्वो छे.
सिद्ध करे छे. तेना स्पर्श, रस, गंध, वर्णादि गुण अने तेनी परिवर्तन पामती
पर्यायो ते तेनाथी छे, आत्माने आधीन ते कदी नथी. एनी व्यवस्था ते करे
छे, तेना वडे ने तेना आधारे ते थाय छे, आवुं वस्तुस्वरूप न मानतां एनां
कार्य हुं करुं, हुं होउं तो तेनुं कार्य थाय.–एम जे माने छे तेने व्यवहारथी पण
अजीवतत्त्वनी श्रद्धा नथी अज्ञानी परपदार्थनुं