मिथ्यात्व रागादि रहित आत्मभावने अहिंसा कहेवामां आवे छे.
थाय. वर्तमान दशामां पुण्य–पाप होय छतां प्रथम तेनो द्रष्टि–श्रद्धा अपेक्षाए
त्याग होय छे. रागथी पार त्रिकाळी स्वभाव उपर द्रष्टि थतां शुद्धात्मानी
अनुभूति–आत्मख्याति थाय छे तेने निर्विकल्प विज्ञानघन आत्मा प्रसिद्ध
थयो, पुण्य–पाप उपर द्रष्टि छे तेने मलिनभाव प्रसिद्ध थयो, आत्मा प्रसिद्ध
न थयो.
कर्ताबुद्धिना अहंकारनुं पोषण ज थाय छे. कदाच पुण्य बांधे तो मिथ्यात्व
सहित पापानुबंधी पुण्य बांधे छे.
२प. जगतना जड अने चेतन पदार्थो सदाय तेनी शक्तिथी टकीने
अमे परनां काम कर्यां. समाजने सुधारी दीधो, अमे त्यागी थया छीए, स्त्री,
धनादि परिग्रहनो त्याग कर्यो छे, लूखो, सादो, सात्त्विक आहार खाईए छीए
–तो ए कांई धर्मीनुं चिह्न नथी. पुण्य पाप ते बंधनां कारण छे, हुं तेनाथी
जुदो त्रिकाळी ज्ञाता छुं–एमां ज्ञानने जोडी नवतत्त्वना विकल्पथी छूटो पडी,
अनादि अनंत एकरूप आत्माने जोवो ते निश्चय सम्यग्दर्शन छे.
करुणा, कोमळताना भाव थाय ते पुण्यतत्त्व छे, धर्मतत्त्व तेनाथी पार छे.
व्यवहारमां एकताबुद्धि–छोडी, भेदथी खसीने अंतर अभेद स्वभावमां ढळवुं
तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे–एकने जाण्यो, तेणे सर्व जाण्युं. व्यवहारनय छे अने
तेनो विषय पण छे परंतु एना लक्षे आत्मा जणाय नहि. अंतरज्ञायकमां
ठरीने, एक आत्मा जाण्यो तेणे स्व–पर बधुं जाण्युं. अंतर्मुखद्रष्टि कर्या विना
कोईने पण धर्म थतो नथी.
आगळ वधतां पुरुषार्थ अनुसार अंतरमां स्थिरता वधे छे, भूमिकानुसार
पुण्य–पाप व्रत, तपना शुभभाव पण होय छे पण शुभरागने ते धर्म न
माने. पुण्यबंधनुं कारण माने, फोतरा समान छोडवा योग्य माने.