Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 48

background image
स्वभावमां एकाग्रताना बळथी विशेषपणे लीन रहेवुं ते परम अहिंसा छे.
मिथ्यात्व रागादि रहित आत्मभावने अहिंसा कहेवामां आवे छे.
२३. पुण्य–पाप भाव ते अशुद्ध दशा छे, तेनाथी चैतन्यनी जागृतिरूप
भावप्राणने घात थाय छे. जे घातक छे तेनाथी आत्मानुं हित केम थाय? न ज
थाय. वर्तमान दशामां पुण्य–पाप होय छतां प्रथम तेनो द्रष्टि–श्रद्धा अपेक्षाए
त्याग होय छे. रागथी पार त्रिकाळी स्वभाव उपर द्रष्टि थतां शुद्धात्मानी
अनुभूति–आत्मख्याति थाय छे तेने निर्विकल्प विज्ञानघन आत्मा प्रसिद्ध
थयो, पुण्य–पाप उपर द्रष्टि छे तेने मलिनभाव प्रसिद्ध थयो, आत्मा प्रसिद्ध
न थयो.
२४ गृहस्थ दशामां पण यथार्थ अनुभवपूर्वक आ द्रष्टि थई शके छे.
आ सम्यग्दर्शन विना जे कंई करवामां आवे तेनाथी परमां अने रागमां
कर्ताबुद्धिना अहंकारनुं पोषण ज थाय छे. कदाच पुण्य बांधे तो मिथ्यात्व
सहित पापानुबंधी पुण्य बांधे छे.
‘हुं करुं, हुं करुं, ए ज अज्ञानता, शकटनो भार जेम श्वान ताणे.’
२प. जगतना जड अने चेतन पदार्थो सदाय तेनी शक्तिथी टकीने
बदली रह्या छे–तेनी व्यवस्था तेना कारणे थई रही छे, तारा–कारणे नहि.
अमे परनां काम कर्यां. समाजने सुधारी दीधो, अमे त्यागी थया छीए, स्त्री,
धनादि परिग्रहनो त्याग कर्यो छे, लूखो, सादो, सात्त्विक आहार खाईए छीए
–तो ए कांई धर्मीनुं चिह्न नथी. पुण्य पाप ते बंधनां कारण छे, हुं तेनाथी
जुदो त्रिकाळी ज्ञाता छुं–एमां ज्ञानने जोडी नवतत्त्वना विकल्पथी छूटो पडी,
अनादि अनंत एकरूप आत्माने जोवो ते निश्चय सम्यग्दर्शन छे.
२६. प्रथम शुभराग करे, पुण्य करे तो हळवो थाय एम कहेनारनी
विपरीत द्रष्टि छे, ते चैतन्यस्वभावनी हिंसा करनारी द्रष्टि छे. दया, दान,
करुणा, कोमळताना भाव थाय ते पुण्यतत्त्व छे, धर्मतत्त्व तेनाथी पार छे.
व्यवहारमां एकताबुद्धि–छोडी, भेदथी खसीने अंतर अभेद स्वभावमां ढळवुं
तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे–एकने जाण्यो, तेणे सर्व जाण्युं. व्यवहारनय छे अने
तेनो विषय पण छे परंतु एना लक्षे आत्मा जणाय नहि. अंतरज्ञायकमां
ठरीने, एक आत्मा जाण्यो तेणे स्व–पर बधुं जाण्युं. अंतर्मुखद्रष्टि कर्या विना
कोईने पण धर्म थतो नथी.
२७. धर्मी गृहस्थदशामां होय तो पण तेने निश्चय–व्यवहार बेउनुं
ज्ञान होय छे. नवतत्त्वना विकल्पथी पार निर्विकल्प श्रद्धाज्ञान होय छे. तेथी
आगळ वधतां पुरुषार्थ अनुसार अंतरमां स्थिरता वधे छे, भूमिकानुसार
पुण्य–पाप व्रत, तपना शुभभाव पण होय छे पण शुभरागने ते धर्म न
माने. पुण्यबंधनुं कारण माने, फोतरा समान छोडवा योग्य माने.