: १६ : वैशाख : २४८८
३९. जो वर्तमान रागादि विकारनुं अस्तित्व जड कर्मने कारणे होय तो
ते टळे नहि. अने जीवनी वर्तमान पर्यायमां अशुद्ध उपादाननी योग्यता ज
विकारी थवा योग्य न होय तो संसार साबित थाय नहि. जीवनी दशामां
विकारी थवानी योग्यता छे, ने तेमां जूना कर्मना उदयनुं निमित्तपणुं छे–
एटले के तेने निमित्त बनावे तो विकार थाय छे. एकला द्रव्यस्वभावने कारण
बनावे तो रागादि विकार न थाय.
४०. पुण्यपापना परिणामरूपे थवानी जीवनी योग्यता छे पण ते
जीवनो स्वभाव नथी. त्रिकाळी स्वभावमां रागादिपणे थवानी योग्यता नथी,
तेनो तो तेमां त्रणेकाळे अभाव छे. जीवनी पर्यायमां भूलनी योग्यता छे ते
कांई जड कर्मने लीधे नथी. कर्म बिचारा जड छे तेने स्व–परनी खबर नथी ते
तने शुं करे?
४१. जीव जे भाव करे छे तेने ते करनार न कहेतां ते भावने जीव
योग्य छे अने ए प्रकारनी जीवनी पर्यायनी योग्यता कही छे. पुण्यपापना
भावमां अजीवकर्मनो उदय निमित्त कारण छे तेने विकारक गणीने तेने
द्रव्यपुण्य, द्रव्यपाप कहेवामां आवे छे. अहीं योग्यता एकला जीवमां बताववी
छे, अजीवकर्मने कारण करवाथी रागादि थाय छे, ते योग्यता जड कर्मने लीधे
छे एम माने तो जीव अने अजीव बे द्रव्य एक थई जाय.
४२. पाणी स्वभावे शीतळता राखीने पोतानी योग्यताथी उष्ण थाय
छे, तेमां अग्नि निमित्त कारण छे पाणी अग्निने लीधे गरम थयुं एम कहेवुं ते
निमित्तनुं ज्ञान कराववा व्यवहारनुं कथन छे. जो खरेखर अग्निवडे पाणी उष्ण
थयुं होय तो त्यां रहेलुं आकाश पण उष्ण थवुं जोईए. पण एम तो थतुं
नथी. पाणीमां उष्णपर्यायनी योग्यता प्रगट थवा काळे अग्नि निमित्त छे. तेनुं
ज्ञान कराववा माटे अग्निने कारण कहेवाय छे. तेम जीव विकारभावे परिणमे
अने कर्मोना उदयमां जोडाय तो कर्मने निमित्तकारण कहेवाय छे. तेमां न
जोडाय अने ज्ञानानंदस्वरूपमां सावधान रहे तो कर्मने अभावरूप निमित्त
कहेवाय छे.
४३. जीवनी वर्तमान अशुद्धदशा ते पुण्यपाप थवा योग्य छे तेमां
शुभरागने भावपुण्य कह्युं छे तेमां निमित्तमात्र मोहकर्म छे, जोके ते पापकर्म
छे छतां ते ज निमित्तने द्रव्य पुण्य कह्युं–विकारक कह्युं. बेउनी स्वतंत्रता
कबूलीने निमित्त–नैमित्तिक संबंधमां सात प्रकारे जीवनी योग्यता अने तेमां
सद्भावरूप अथवा अभावरूप जूना कर्मने निमित्त कहेवामां आवे छे. ए
रीते व्यवहारनयना विषयमां पुण्यपाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने
मोक्ष ए सात भेद केम थया ए जाणवुं जोईए. पण ए सर्व भेदने गौण
करनार अंदर ध्रुव एकरूप–चैतन्य ज्ञायक वस्तु हुं भूतार्थ छुं एम निर्णय
करी अंदरमां अभेद चैतन्यने विषय बनावी, तेनी निर्विकल्प श्रद्धा करे तेने
सम्यग्दर्शन कहे छे.