Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४८८ : १७ :
आचार्यदेव मिथ्यात्वनुं
झेर उतारवा
आत्मज्ञाननुं अमृत पीरसे छे.
[समयसार कलश १२२ उपर, गोंडलमां पूज्य गुरुदेवनुं प्रवचन]
(महा सुद ९ वीर संवत २४८७)
श्री समयसार परमागम छे, तेनी सर्वोत्तम टीका करनार श्री
अमृतचंद्राचार्य एक हजार वर्ष पूर्वे थई गया; तेमणे प्रथम मांगलिक ‘नम:
समयसाराय’ थी शरू कर्युं छे. आ कळश मध्य मंगलरूपे छे.
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि।
नास्ति बंधस्तदत्यागात्त त्यागाद्वंध एव हि।। १२२।।
अर्थ:– अहीं आ ज तात्पर्य छे के शुद्धनय त्यागवा योग्य नथी; कारण
के तेना अत्यागथी (ग्रहणथी) बंध थतो नथी, अने तेना त्यागथी बंध ज
थाय छे.
आखा शास्त्रनो सार आ छे के शुद्धनय त्यागवा योग्य नथी.
(शुद्धनय अने तेनो विषय जे पूर्ण शुद्धात्मा बेउने अहीं एक–अभेद गण्या
छे.) आ कळश मध्यमंगळ छे. मंगळनो अर्थ एवो छे के–मंग=पवित्रता;
सुख, एने ल=लावे, पमाडे ते. आत्मामां निर्मळ श्रद्धा, ज्ञान अने अतीन्द्रिय
सुख अनुभव द्वारा प्रगट थाय ते भावने सर्वज्ञ भगवान मंगळ कहे छे.
संसारना मानेला मंगळने मंगळ कहेता नथी, केमके ते नाशवान छे.
–मंगळनो बीजी रीते अर्थ:–मम्=शरीर अने पुण्य पापमां ममतारूपी
जे पाप तेने, गल=गाळे एवा शुद्धभावने मंगळ कहेवामां आवे छे.
‘शुद्धनय’ ते सम्यक्श्रुतज्ञान प्रमाणनो अंश छे. हितकारी–अहितकारी
शुं तेनो यथार्थ निर्णय करी जे ज्ञान पोताना त्रिकाळी पूर्णज्ञानघन स्वरूपमां
दोरी जाय तेनुं नाम