: २० : वैशाख : २४८८
ओळखाण करतां आत्मानुं साचुं सुख मळे, तेनाथी विरुद्ध पुण्य–पाप ते दुःख
छे–संसार छे.
पुण्य–पाप तो विभाव छे, दुःख छे. पुण्यनो भाव ते मंद आकुळता छे;
पापनो भाव तीव्र आकुळता छे. माटे तेनी द्रष्टि रुचि–भावना) छोडी
अंदरमां तेनाथी रहित ध्रुवस्वभाव छे. तेना उपर द्रष्टि कर. जे ज्ञान अंतर
स्वभाव तरफ वळे ते शुद्धनय छे ने ते ग्रहण करवा योग्य छे.
जेम समुद्रमां मध्यबिन्दुमांथी ऊछळीने भरती आवे तेने कोई रोकी
शके नहि, तेम आत्मा ध्रुवज्ञानानंद समुद्र छे तेना आलंबननी द्रष्टिथी जाग्यो
तेने कोई रोकनार नथी. जेम सूर्यमां प्रकाश प्रगट थयो तेने रोकनार कोई
अंधकार नथी; अंधकार अंधकारमां छे–तेम राग रागमां छे, क्षणिक छे, विरुद्ध
छे, खरेखर दुःखदाता छे. एम जाणे ते तेनो तिरस्कार करनार
अरागस्वभावमां रुचिवाळो थया विना रहे नहि.
आत्मा सदा पूर्णज्ञानस्वभावी छे, तेनी श्रद्धा छोडवा योग्य नथी.
केमके ते मोक्षनुं कारण छे; अने पुण्य–पापना विकल्परूप अशुद्धता छोडवा
योग्य छे केमके तेना आश्रये बंधन–दुःख ज थाय छे.
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावांतरच्छिदे।। १।।
पूर्णताने लक्षे शरूआत–पूर्णसाध्यने शुद्धात्माने लक्षमां राखीने अंदरमां
पूर्ण परमात्मभाव (ध्रुवद्रव्यस्वभाव) छे तेने ज नमुं छुं. तेमां ज परिणमुं छुं,
ढळुं छुं,–एम प्रथम मंगळ कर्युं. बीजा मंगळमां शुद्धद्रष्टि त्यागवा योग्य नथी
एम कह्युं, छेल्ला मंगळमां दरेक द्रव्यनुं स्वतंत्र परिणमन बताववा कह्युं के,
आ शास्त्र शब्दोए रच्युं छे, अमे कर्युं नथी, आचार्य तो ज्ञातापणुं पोतानुं
स्वरूप छे तेम जाणे छे. शब्दरचनामां मारुं कांई कर्तव्य नथी; महान
अध्यात्मशास्त्रनी टीका करुं एवो राग (विकल्प) आव्यो पण ते रागनो कर्ता,
भोक्ता के स्वामी हुं नथी, वाणीरूपे ध्वनि ऊठे छे ते शब्दो भाषावर्गणाथी
थाय छे, हुं तो ज्ञाता ज छुं. मारामां शब्दो नथी. अमारामां तो अविनाशी
ज्ञानादि गुण छे वर्तमानज्ञान त्रिकाळी स्वभावमां जोडयुं छे तेथी निर्मळश्रद्धा–
भिन्नताथी द्रष्टि करनारो रागादि (–पुण्य–पाप) आदरणीय मानतो नथी.
राग–द्वेष आदि दोष घटाडनारो त्रिकाळी निर्दोष कोण छे, ते जाण्या विना अंश
मात्र दोष टळी शके नहि. ने अंशमात्र मोक्षमार्गनो विवेक आवे नहि. हा,
परलक्षे राग पातळो पाडी शके तेथी पुण्य थाय पण धर्म थई शके नहि.
डहापणथी धनादि मळे एम मोहथी अज्ञानी माने छे, पण तेनुं मळवुं
वर्तमान पुरुषार्थने आधीन नथी. जेम पूर्वनां पुण्य विना धनादि न मळे तेम
वर्तमान नवा पुरुषार्थ विना धर्म (–वीतरागीद्रष्टि–ज्ञान–आनंद) न मळे.