Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : वैशाख : २४८८
जैन तत्त्व मीमांसा
विषय––प्रवेश
(गतांक नं. २१६थी चालु)
[आगळना लेखनुं अनुसंधान–२२–आ रीते आगममां उपचरित
कथन केटला प्रकारे करवामां आव्या छे अने ते त्यां कया आशयथी
करवामां आव्या छे एनो विचार करीने हवे अनुपचरित कथननी
संक्षेपमां मीमांसा करीए छीए.)
२२–ए तो स्पष्ट वात छे के प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव छे तेथी
ते पोताना आ परिणमन स्वभावने लीधे ज परिणमन करे छे. बीजुं
कोई परिणमन करावे त्यारे ते करे नहि तो न करे एम नथी. कार्य–कारण
परम्परामां आ
सिद्धांत परमार्थभूत अर्थनो प्रतिपादक छे. तेथी आ सार
फलित थाय छे–
(१) आ जीव पोताना ज कारणे स्वयं संसारी बन्यो छे अने
पोताना ज कारणे मुक्त थशे तेथी यथार्थरूपे कार्यकारणभाव एक ज द्रव्यमां
घटे छे. नयचक्रमां कह्युं पण छे–
बंधे च मोक्ख हेउ अण्णो ववहारदो य णायव्वो।
णिच्छबदो पुण जीवो भणिओ खलुं सव्वदरसीहिं।। २३५।।
व्यवहारथी (उपचारथी) बंध अने मोक्षनो हेतु अन्य पदार्थ
(निमित्त) ने जाणवा जोईए. पण निश्चय (परमार्थ) थी आ जीव स्वयं
बंधनो हेतु छे अने आ ज जीव स्वयं मोक्षनो हेतु छे एम सर्वज्ञदेवे कह्युं छे.
२३प.
(२) जे स्वयं कार्यरूपे परिणमे छे ते कर्ता छे अने कार्य एनुं कर्म छे.
करण, सम्प्रदान, अपादान अने अधिकरणना विषयमां पण ए ज रीते जाणी
लेवुं जोईए.