वैशाख : २४८८ : २९ :
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डार अन्तर भेदिया।
वरणािद अरु रागादितैं निजभावको न्यारा किया।।
निजमांहि निजके हेत निजकरि आपकौ आपे गह्यौ।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मझार कछु भेद न रह्यो।।
२८–आ छंदमां सौथी पहेलां उत्तमबुद्धिरूपी छीणीवडे अंतरने भेदी
वर्णादिक अने रागादिकथी निजभाव (ज्ञायक स्वभाव आत्मा) ने जुदा
करवानो जे उपदेश आपवामां आव्यो छे अने त्यार पछी जे निजभाव छे
तेने पोतामां ज, पोतावडे, पोतामाटे ग्रहण करीने आ गुण छे. आ गुणी छे,
आ ज्ञाता छे, आ ज्ञान छे अने आ ज्ञेय छे ईत्यादि विकल्पोथी निवृत्त थवानो
जे उपदेश आपवामां आव्यो छे तेथी आ कथनवडे पण ते ज स्वाश्रयपणानो
निर्देश करवामां आव्यो छे जेनो अमे पहेलां उल्लेख करेलो छे. एथी बताव्युं
छे के सौ पहेलां आ जीवने ए जाणी लेवुं जरूरी छे के वर्णादिकनुं आश्रयभूत
पुद्गलद्रव्य भिन्न छे अने ज्ञायकस्वभाव आत्मा भिन्न छे. परंतु तेनुं आ
जाणवुं त्यारे परिपूर्ण गणाय ज्यारे परने निमित्त मानीने थतां रागादि
भावोमां पण तेनी परबुद्धि थई जाय तेथी आ जीवने आ रागादिभाव
ज्ञायकस्वभावआत्माथी भिन्न छे ए जाणी लेवुं पण जरूरी छे. हवे समजो के
कोई जीवे ए जाणी पण लीधुं के मारो ज्ञायकस्वभाव आत्मा आ वर्णादिकथी
अने रागादिक भावोथी भिन्न छे तोपण तेनुं एटलुं जाणवुं पूरतुं मानी शकातुं
नथी कारण के ज्यांसुधी आ जीवने एवी बुद्धि रह्या करे छे के प्रत्येक कार्यनी
उत्पत्ति निमित्तथी थाय छे, तो त्यांसुधी तेना जीवनमां निमित्तनुं अर्थात्
परना आश्रयनुं ज बळ रह्या करवाथी तेणे पराश्रयवृत्तिनो त्याग कर्यो एम
कही शकातुं नथी. माटे अहीं एम समजवुं जोईए के जे वर्णादिक अने
रागादिकथी पोताना ज्ञायक स्वभाव आत्माने भिन्न जाणे छे ते ए पण जाणे
छे के प्रत्येक द्रव्यनी प्रति समयनी पर्याय निमित्तथी उप्तन्न न थतां पोताना
उपादानथी उप्तन्न थाय छे. जो के अहीं प्रश्न थाय छे के ज्यारे प्रत्येक द्रव्यनी
प्रत्येक समयनी पर्याय निमित्तथी उत्पन्न न थतां पोताना उपादानथी ज
उत्पन्न थाय छे तो पछी रागादिभाव परना आश्रयथी उप्तन्न थाय छे एम केम
कहेवामां आवे छे? समाधान ए छे के रागादि भावोनी उत्पत्ति पोताना
उपादानथी ज थाय छे, निमित्तोथी त्रण काळमां थती नथी. केम के अन्य
द्रव्यमां तेनाथी भिन्न अन्य द्रव्यनुं कार्य करवानी शक्ति ज होती नथी. छतां
पण रागादिभाव परना आश्रयथी उत्पन्न थाय छे ए पर तरफनो झूकावरूप
दोष बताववाने माटे ज कहेवामां आवे छे. ते परथी उत्पन्न थाय छे माटे नहि.
२९–स्वपरनी एकत्वबुद्धिरूप मिथ्या मान्यताने कारणे ज आ जीव
संसारी बनी रह्यो छे.