Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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जीव अने शरीरमां एकत्वबुद्धिनुं मुख्य कारण पण ए ज छे. आ जीवने सौथी
पहेलां आ मिथ्या मान्यतानो ज त्याग करवानो छे. एनो त्याग थतां ज ते
जिनेश्वरनो लघुनंदन बनी जाय छे. जेना परिणामे तेनी भविष्यनी
स्वातंत्र्यमार्गनी प्रक्रिया सहेली बनी जाय छे. माटे जैनदर्शन अथवा
व्यवहारनयनी मुख्यताथी कथन करनारा शास्त्रोनी कथन शैलीथी
अध्यात्मशास्त्रोनी कथन शैलीमां जे द्रष्टिभेद छे तेने समजीने ज प्रत्येक
मुमुक्षुए एनुं व्याख्यान करवुं जोईए. लोकमां जेटली जातना उपदेश मळे छे
ते स्वमत अनुसार कई रीते संगत छे ए बताववुं ते जैनदर्शननुं मुख्य
प्रयोजन छे तेथी तेमां कयुं उपचरित कथन छे अने कयुं अनुपचरित कथन छे
एवो भेद कर्या विना नय–प्रमाण द्रष्टिथी बन्नेनो स्वीकार करवामां आव्यो
छे. पण अध्यात्मशास्त्रना कथननुं मुख्य प्रयोजन जीवने स्व–परनो विवेक
करावीने संसार बंधनथी छोडावनारो
साक्षात् उपाय बताववानुं छे. तेथी
तेमां उपचरित कथनने गौण करीने अनुपचरित कथनने ज मुख्यता
आपवामां आवी छे. आ रीते तीर्थंकरोनी समग्र वाणी उपचरित कथन अने
अनुपचरित कथन ए बे भागोमां केवी रीते विभाजित छे तेनी विषय
प्रवेशनी द्रष्टिए संक्षेपमां मीमांसा करी.







चक्रवर्तीनी समस्त संपत्तिथी पण जेनो मात्र एक समय पण
विशेष मूल्यवान् छे एवो आ मनृष्यदेह अने परमार्थने अनुकूळ एवो
योग संप्राप्त थवा छतां पण जन्ममरणथी रहित एवा परमपदनुं ध्यान
राख्युं नहीं तो आ मनुष्यत्वने अधिष्ठीत एवा आत्माने अनंतवार
धिक्कार हो.
जेणे प्रमादनो जय कर्यो तेमणे परमपदनो जय कर्यो.
(श्रीमद् राजचंद्र)