आखो आत्मा अंदर थंभी गयो. पवित्रतानो पिंड शान्त–आनंदसागरमां
लीन देखायो अने वीजळीना झबकारा जेवां पुण्य जोवामां आव्यां.
१२. वळी ‘आत्मा’ केवो छे? के कर्म मळथी रहित तथा विभावगुण–
पर्यायोथी रहित छे. अहीं मतिश्रुतज्ञानने विभावगुण–पर्याय कहेल छे.
केवळज्ञान क्षायिक पर्याय छे, ते नीचे साधकदशामां होती नथी. ते पण
अनित्य पर्याय छे, समये–समये बदले छे तेवडो ज आत्मा नथी.
‘अहो? प्रभु...प्रभुता तारी...छे चैतन्य धाममां...’
“ज्यां चेतन त्यां सर्व गुण, केवळी बोले एम;
प्रगट अनुभव आपणो, निर्मळ करो सप्रेम रे–चैतन्य
प्रभुजी प्रभुता तारी...रे चैतन्य धाममां...”
भाई! तारूं चैतन्यघन शाश्वत सत् ध्रुव छे. क्षायिकपर्यायना लक्षे पण
ते पकडी शकाय नहि. चारभावने विभाव (विशेषभाव) कह्या छे; ते ध्रुव
(सामान्य) नथी.
१३. परम पारिणामिक स्वभावनी श्रद्धा–रुचि, महिमा जे करे, ते
अल्पकाळमां सिद्धपरमात्मा थईने तेमनी साथे बिराजशे. जिज्ञासाथी सत्य
समजवा मागे तो तेनामां कुणप, सरलता, सज्जनता आवे ज छे, कोई
सत्ताप्रिय अमलदार होय, तेना तंबुनी एक खीली ढीली पडतां तेमां सळ पडे
तो तेने गोठे नहि, तो पछी पवनमां आखो तंबु ऊडे ते तो केम गोठे? तेम
अज्ञानीने परमां धार्युं करवानुं अभिमान होय छे तेने–निरालंबी आखो
आत्मा केम गोठशे? संयोगोनी भावना होय छे पण संयोगो तो अनित्य–
अशरण छे, तेमांथी नित्यतारूप शरण क््यांथी आवे? बाळकपणे जन्मीने
माताना गोदमां आववा पहेलां, प्रथम–क्षणेज जीवो अनित्यतानी गोदमां
आवे छे, आ शरीर अने पुण्य–पापनी लागणी अनित्य ज छे, तेने आश्रये
सुख–समाधान गोतवाथी ते कदी मळे नहि.
१४. पुण्यना फळरूप अज्ञानीने पैसा वधे त्यां हुं पहोळो ने शेरी
सांकडी एम तेने थई पडे छे. प्रभु! तारी सुखदाता चीज कोण! ते तारा
सांभळवामां पण आवेल नथी. शरीर सदाय जड छे, ते तेनाथी बदले छे,
पुण्य–पाप आस्रव मलिनभाव छे; तेना वडे निर्मळता प्रगटे नहि. पण तेनी
अपेक्षा रहित अंदर ध्रुवस्वभावमां देखे तो नित्य कारणशक्तिमांथी शुद्धकार्य
प्रगटे छे.
१प. आत्मा विभावगुणपर्याय विनानो छे एम कह्युं ए तो नास्तिथी
कह्युं पण अंदर अस्तिपणे जोतां ते अनादि अनंत ज्ञायक स्वरूपे छे. वर्ण,
गंध, रस, स्पर्श रहित सदाय अरूपी अमूर्तिक छे. घणा जाणपणाना कारणे
पण शरीरमां वजन वधतुं नथी तेथी नक्की थाय छे के ज्ञानमां वजन नथी, ते
पूर्वना रागादि कलेशनी वात वर्तमानमां याद करी शके छे, पण ते