Atmadharma magazine - Ank 223
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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याद करतां रागादि थई आवता नथी तेथी सिद्ध थाय छे के ज्ञानमां पुण्य–पाप
(रागादि) रूप मेल नथी. रागादिमां एकताबुद्धि–कर्ताबुद्धि ते मूळ दोष छे. ते
जीवना ज्ञानने अज्ञान (मिथ्याज्ञान) कहेवामां आवे छे.
१६. घणुं जाणे तो ज्ञानमां तोल थाय के राग–द्वेष उपाधि वधी जाय एम
नथी. ज्ञान तो आत्मानुं स्वरूप छे. जेनी वर्तमान अधुरीदशामां पण घणां–घणां
वर्षोनी वात याद करवानी ताकात छे ते पूर्ण थाय तो कोने न जाणे? सर्वने
जाणे.
१७. आत्मा अनादि अनंत अतीन्द्रिय ज्ञानमय वस्तु छे, ते संयोग अने
विकारना अभाव स्वभावे सदाय छे, ते ईन्द्रिय अने शुभ विकल्पवडे जाणी
शकाय एवो नथी. जीवद्रव्यना ज्ञायकभावने पारिणामिकभाव कहेवामां आवे छे
ते त्रिकाळ शुद्ध ज छे; पण तेनी वर्तमान प्रगटदशामां अशुद्धता, अल्पज्ञता,
अल्पबळ छे. तेने गौण करी (एनो आश्रय करवानी श्रद्धा छोडी) त्रिकाळ
सामान्य स्वभावनी द्रष्टि करतां धर्मनी शरूआत थाय छे.
१८. जेम जळनो कायमी स्वभाव तो शीतळतामय छे पण वर्तमान
दशामां अग्निना संबंधथी उष्ण अवस्था देखाय छे. ते छे खरी पण तेना लक्षे
उष्णतानो अनुभव थाय परंतु शक्तिरूप शीतळता न जणाय. उष्णदशामां जीभ,
आंख, हाथ द्वारा शीतळता नक्की करवा मागे तो न जणाय. पण ते उष्णता
क्षणिक छे तेथी टळी शके छे अने ते उष्णदशानी पाछळ कायमी शीतळ स्वभाव
पड्यो छे एम ज्ञानवडे नक्की थई शके छे. जेम पाणीमां उष्णता छे ते पाणीनो
कायमी स्वभाव नथी, पण ते तेनी क्षणिक योग्यता छे. तेम आत्मामां शान्त
स्वतंत्र ज्ञान–आनंद स्वभाव कायम छे, छतां तेनी वर्तमानदशामां पराश्रयथी
थती अल्पज्ञता–अशुद्धता छे ते तेनी क्षणिक योग्यता छे, तेना लक्षे असली
कायमी शुद्धभाव (आत्मा) नो अनुभव, थई शके नहि. वळी आत्मा वर्तमान
प्रगट अंश जेटलो नथी, ते वचन तथा ईन्द्रियथी ग्राह्य नथी पण अंतर्मुख
ज्ञानथी जणाय एवो छे. (पूर्ण निर्मळ) क्षायिकपर्याय जेवडो पण नथी. ते तो
अनादि–अनंत अतीन्द्रिय अने संपूर्ण चैतन्यमय पदार्थ छे.
१९. काळा मरी (तीखां) अने मरचानी तीखाश ए बेमां फेर छे. ज्ञान तेने
जाणे पण वाणीद्वारा ते कही शकाय नहि. गायनुं ताजुं घी होय तेनो स्वाद केवो ते
ख्यालमां आवे पण कोई बीजानी सरखामणी के उपमाथी संतोषकारक रीते तेने
कही शकाय नहि. तेम आत्मा वाणीद्वारा संपूर्णपणे कही शकाय एवो नथी.
‘जे स्वरूप सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक््या नहि ते पण श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्यवाणी ते शुं कहे,
अनुभव गोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
वाणी तो वाहन छे, ते अपेक्षाथी भेद पाडीने वस्तुनुं वर्णन करे पण तेमां
तो मात्र ईशारा आवे पण एक साथे आखुं स्वरूप न आवे. वाणीना ईसाराथी
समजी लेनारो अंदर