Atmadharma magazine - Ank 224
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : २२४
विषयनी मीमांसा कुन्दकुन्दाचार्ये पोते समयसारमां करी छे. तेमनुं कहेवुं छे के जीव द्रव्य जो कर्मथी स्वयं
बंधायो नथी अने स्वयं क्रोधादिरूपे परिणमन करतो नथी तो ते अपरिणामी ठरे छे अने आवी रीते ते
अपरिणामी थतां एक तो संसारनो अभाव प्राप्त थाय छे अने बीजुं सांख्यमतनो प्रसंग आवे छे. जीव
स्वयं तो अपरिणामी छे परंतु तेने क्रोधादिभावरूपे क्रोधादि कर्म परिणमावे छे एम कहेवुं योग्य लागतुं नथी
केमके जीवने स्वयं परिणमन स्वभाववाळो न मानीए तो क्रोधादि कर्म तेने क्रोधादिभावरूपे केवी रीते
परिणमावी शके? जो आ दोषनो परिहार करवा माटे जीवने स्वयं परिणमनशील मानवामां आवे तो क्रोधादि
कर्म जीवने क्रोधादि भावरूपे परिणमावे छे ए कहेवुं तो मिथ्या ठरे ज छे. साथे ज आना उपरथी ए ज फलित
थाय छे ज्यारे आ जीव क्रोधरूपे परिणमे छे त्यारे ते पोते ज क्रोध छे, ज्यारे स्वयं मानरूपे परिणमे छे त्यारे
ते पोते ज मान छे, ज्यारे स्वयं मायारूपे परिणमे छे त्यारे ते स्वयं माया छे अने ज्यारे स्वयं लोभरूपे
परिणमे छे त्यारे ते पोते लोभ छे. कुन्दकुन्दाचार्ये आ मीमांसा फकत जीवना आश्रयथी ज करी नथी. कर्म
वर्गणाओ ज्ञानावरणादिकर्मरूपे केवी रीते परिणमन करे छे एनी मीमांसा करतां पण तेमणे एनुं मुख्य
कारण परिणामस्वभाव ज बताव्युं छे.
प–एक द्रव्य बीजा द्रव्यने केम परिणमावी शकतुं नथी एना कारणनो निर्देश करतां तेओ आज
समयसारमां कहे छे–
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हिदुण संकमदि दव्वे।
सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं।।
१०३।।
जे जे द्रव्य अथवा गुणमां रह्युं होय तेने छोडी ते अन्य द्रव्य के गुणमां कदी पण संक्रमण पामतुं नथी
ते ज्यारे बीजा द्रव्य के गुणमां संक्रमण पामतुं नथी तो ते तेने केवी रीते परिणमावी शके अर्थात् परिणमावी
शकतुं नथी. १०३.
६–तात्पर्य ए छे के लोकमां जेटला कोई कार्य छे ते बधा पोताना उपादान प्रमाणे ज थाय छे. एम
बनी शकतुं नथी के उपादान घटतुं होय अने तेमांथी पटनी नित्त्पत्ति(प्राप्ति) थई जाय. जो घटना उपादाननी
पटनी उत्पत्ति थवा मांडे तो लोकमां पदार्थोनी व्यवस्था पण न बनी शके अने तेनाथी उत्पन्न थता कार्योनी
व्यवस्था पण न बनी शके. ‘गणेश प्रकुर्वाणो स्वयामास वानरम्’ (गणेश बनावता वांदरानी रचना थई)
जेवी स्थिति उत्पन्न थशे.
७–जेने जैनदर्शनमां उपादान कारण कहे छे तेने नैयायिक दर्शनमां समवायीकारण कहेवामां आव्युं छे.
जो के नैयायिक दर्शन प्रमाणे जड–चेतन प्रत्येक कार्यनो कर्ता ईच्छावान, प्रयत्नवान अने ज्ञानवान सचेतन
पदार्थ ज होई शके, समवायी कारण नहि. तेमां पण ते सचेतन पदार्थ एवो होवो जोईए के जेने दरेक समये
उत्पन्न थता बधा कार्योना अद्रष्टादि कारण साकल्यनुं पूर्ण ज्ञान होय. तेथी ते दर्शनमां बधा कार्योना कर्तारूपे
ईच्छावान, प्रयत्नवान अने ज्ञानभाव ईश्वरनी स्वतंत्ररूपे स्थापना करवामां आवी छे. आ रीते आपणे
जोईए छीए के जे दर्शनमां बधा कार्योना कर्तारूपे ईश्वर उपर आटलुं वजन आप्युं छे ते दर्शन ज ज्यारे
कार्यनी उत्पत्तिमां समवायी कारणोना सद्भावनो स्वीकार करे छे. अर्थात् पोत पोताना समवायीकारणोथी
संयुक्त थईने ज ज्यारे ते घटादि कार्योनी उत्पत्ति माने छे एवी अवस्थामां बीजाना कार्यना उपादानथी
बीजा कार्यनी उत्पत्ति थई जाय ए मान्यता तो त्रण काळमां पण संभव नथी. ए ज कारणे कुन्दकुन्दाचार्ये
ज्यां कोई कार्यनो कारणनी द्रष्टिथी विचार कर्यो छे त्यां तेमणे तेना कारणरूपे उपादान कारणने ज मुख्यता
आपी छे. ते कार्य पछी संसारी आत्मानी शुद्धिने लगतुं होय के घट पटादिरूप अन्य कार्य होय. ते पोताना
उपादान प्रमाणे ज थशे ए तेमना कथननो आशय छे. जैनदर्शनमां प्रत्येक द्रव्यने परिणामस्वभावी
मानवानी सफळता पण एमां ज छे.
८–प्रश्न ए छे के जो प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील छे तो ते प्रत्येक समयमां बदलीने अन्य अन्य केम
थई जतुं नथी. केमके प्रथम समयमां जे द्रव्य छे ते ज्यारे बीजा