: जेठ : २४८८ : १३ :
समयमां बदली गयुं तो तेने प्रथम समयवाळुं मानवुं केवी रीते संगत गणाय? तेथी कां तो एम कहेवुं
जोईए के कोई पण द्रव्य परिणमनशील नथी अथवा एम मानवुं जोईए के प्रथम समयमां जे द्रव्य छे ते
बीजा समये रहेतुं नथी. ते समये बीजुं द्रव्य उत्पन्न थई जाय छे. एवी ज रीते बीजा समये जे द्रव्य छे ते
त्रीजा समयमां रहेतुं नथी केमके ते समये अन्य नवीन द्रव्य उत्पन्न थई जाय छे. आ क्रम आ ज रीते
स्वीकारे छे. तोपण तेनुं महत्त्व त्यां सुधी ज छे के ज्यां सुधी जैनदर्शनमां स्वीकारेल ‘सत्’ नां स्वरूप निर्देश
पर ध्यान आपवामां न आव्युं होय. त्यां जो ‘सत्ने’ फकत परिणामस्वभावी मान्युं होत तो ए आपत्ति
अनिवार्य बनत. परंतु त्यां ‘सत्’ ने केवळ परिणामस्वभावी न मानता ए स्पष्ट कहेवामां आव्युं छे के
प्रत्येक द्रव्य पोताना अन्वयरूप धर्मने लीधे धु्रवस्वभाव छे तथा उत्पादव्ययरूप धर्मना कारणे परिणाम
स्वभावी छे. तेथी ‘सत्’ ने केवळ परिणामस्वभावी मानीने जे आपत्ति बतावाय छे ते अहीं लागु पडती
नथी. अमे ‘सत्’ ना आ स्वरूप पर तत्त्वार्थसूत्र अनुसार पहेलां प्रकाश नाखी चूकया छीए.
९–आ विषयने स्पष्ट करतां कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचन सारना ज्ञेयाधिकारमां शुं कहे छे ते तेमना ज
शब्दोमां वांचीए–
समवेदं खलु दव्वं संभव–ठिदि–णाससण्णिदठेहिं।
एक्कम्हि चेव समए तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं।। १०।।
द्रव्य एक ज समयमां उत्पत्ति, स्थिति अने व्यय संज्ञावाळी पर्यायोथी समवेत छे अर्थात् तादात्म्यरूप
छे, तेथी द्रव्य नियमथी ते त्रणमय छे. १०.
आ ज विषयनो विशेष खुलासो करता तेओ फरी कहे छे के–
पादुव्भवदि य अण्णो पज्जाओ वयदि
अण्णो।
दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणट्ठ ण उप्पण्णं।। ११।।
द्रव्यनी अन्य पर्याय उत्पन्न थाय छे अने अन्य पर्याय व्ययने प्राप्त थाय छे तो पण द्रव्य पोते तो
नष्ट पण थयुं नथी अने उत्पन्न पण थयुं नथी. ११
१०–जो के आ कथन जरा विचित्र लागे छे के द्रव्य पोते उत्पन्न अने नष्ट थया विना पण अन्य
पर्यायरूपे केवी रीते उत्पन्न थाय छे अने तेनाथी भिन्न पर्यायरूपे केवी रीते व्यय पामे छे. परंतु एमां
विलक्षणतानी कोई वात नथी. स्वामी समन्तभद्रे एनुं महत्व अनुभव्युं हतुं तेओ आप्तमीमांसामां एनुं
स्पष्टीकरण करतां कहे छे.
न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात्।
व्येत्युदेति विशेषाते सहैकत्रोदयादि सत्।। ५।।
हे भगवान आपना मतमां सत् पोताना सामान्य स्वभावनी अपेक्षाए न तो उत्पन्न थाय छे अने
अन्वय धर्मनी अपेक्षाए व्ययने पण प्राप्त थाय छे. छतां पण तेनो उत्पाद अने व्यय थाय छे ते पर्यायनी
अपेक्षाए ज जाणवा जोईए. तेथी सत् एक ज वस्तुमां उत्पादादि त्रणरूप छे ए सिद्ध थाय छे. प
११–आगळ आज आप्तमीमांसामां तेमणे बे द्रष्टांतो आपीने आ विषयनुं स्पष्टीकरण पण कर्युं छे.
प्रथम द्रष्टांतवडे तेओ कहे छे के–
घट–मौलि–सुवर्णार्यी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोक–प्रमोद–माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्।। ५९।।
घटनो ईच्छक एक मनुष्य घट पर्यायनो नाश थतां दुःखी थाय छे, मुगटनो ईच्छक बीजो मनुष्य
सुवर्णनी मुगट पर्यायनी उत्पत्ति थतां आनंदित थाय छे अने मात्र सुवर्णनो ईच्छक त्रीजो मनुष्य घट
पर्यायनो नाश अने मुगटनी पर्यायनी उत्पत्ति थतां न तो दुःखी थाय छे के न हर्षित थाय छे पण मध्यस्थ
रहे छे. आ त्रणे मनुष्योनुं एक सोनाना आश्रये थतुं आ कार्य अहेतुक होई शके नहि. माटे सिद्ध थाय छे के
सोनाना घट पर्यायनो नाश अने मुगट पर्यायनी उत्पत्ति थवा छतां पण सोनानो न तो नाश थाय छे के न
उत्पाद. सोनुं पोतानी घट मुगट वगेरे प्रत्येक अवस्थामां सोनुं ज बनी रहे छे. प९