Atmadharma magazine - Ank 224
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : २२४
१२–बीजा द्रष्टांतवडे आ ज विषय स्पष्ट करतां तेओ फरीथी कहे छे. –
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम्।। ६०।।
जेणे दूध पीवानुं व्रत लीधुं छे ते दहीं खातो नथी, जेणे दहीं खावानुं व्रत लीधुं छे ते दूध पीतो नथी
अने जेणे गोरस सेवन न करवानुं व्रत लीधुं ते दूध अने दहीं बन्नेनो उपयोग करतो नथी. माटे सिद्ध थाय
छे के तत्त्व उत्पाद–व्यय अने ध्रौव्य आ त्रण रूपवाळुं छे. ६०
१३–सर्वार्थसिद्धिमां आ विषयनुं विशेषपणे स्पष्टीकरण करवामां आव्युं छे. तेमां पूज्यपाद आचार्य
कहे छे–
चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयनिमित्तवशाद भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः
मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत्। तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः। यथा घटोत्पतौ पिण्डाकृतेः।
अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् धु्रवति स्थिरीभवतीति धु्रवः। धु्रवस्य भावः कर्म वा ध्रोव्याम्।
यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः तैरुत्पादव्यय ध्रौव्यैर्युक्तं उत्पाद–व्यय–ध्रौव्ययुक्तं सत्।
(तत्त्वार्थसूत्र अ. प. सू. ३०)
पोत पोतानी जाति छोडया विना चेतन अने अचेतन द्रव्यनुं उभय निमित्त ना वशे अन्य पर्यायनुं
प्राप्त करवुं ते उत्पाद छे. जेम के माटीना पींडानुं घट पर्याय रूपे उत्पन्न थवुं ते उत्पाद छे. पूर्वे पर्यायनो नाश
थवो ते व्यय छे. जेम के घटनी उत्पत्ति थता पींडरूप आकृतिनो नाश थवो ते व्यय छे. तथा अनादिकाळथी
चाल्या आवता पोताना पारिणामिक स्वभावरूपे व्यय पण थतो नथी, उत्पाद पण थतो नथी. पण ते स्थिर
रहे छे. एनुं ज नाम धु्रव छे. तथा धु्रवनो भाव के कर्म ते ध्रौव्य छे, तात्पर्य ए छे के जेवी रीते पींड अने
घटादि अवस्थाओमां माटीनो अन्वय रक्षा करे छे तेथी एक माटी उत्पाद–व्यय अने ध्रौव्य स्वभाव छे. तेवी
ज रीते आ उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यथी युक्त अर्थात् तादात्म्यने पामेलुं एवुं सत् छे.
आ रीते आटला विवेचनथी स्पष्ट थई जाय छे के चेतन अने अचेतन द्रव्यनुं प्रत्येक समये जे
परिणमन थाय छे ते बीजा कोईनुं कार्य न होतां तेनी पोतानी विशेषता छे. तथा पर्यायरूपे परिणमन
करवा छतां पण ते पोताना अनादिकालीन पारिणामिक स्वभावरूपे स्थिर रहे छे. तेनो ते परम पारिणामिक
भाव उत्पन्ने नथी थतो अने व्यय पण नथी थतो ए पण तेनी पोतानी विशेषता छे. आ बन्ने
विशेषताओनुं समुच्यरूप (स्वभावनुं मिलन) द्रव्य अथवा सत् छे ए उकत कथननुं तात्पर्य छे. (चालु)
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* पंचास्तिकाय गा. १० पृ. २७ टीका
१ एक द्रव्य बीजा द्रव्यने परिणमावतुं नथी. अन्यथा (बीजी रीते) प्रत्येक निरन्तर परिणमन
करवानो स्वभाव छे ते सिद्ध थतो नथी. एज कारण छे तेथी खरेखर प्रत्येक द्रव्यनुं परिणमन–कार्य छे ते
तेनाथी भिन्न अन्य द्रव्यनुं कार्य नथी एम कहेवामां आव्युं छे. विशेष खुलासो पहेला करता आव्या छीए.
महान प्रयत्नथी तत्त्व श्रवण
जेम क्षेत्रमां नाखेला बीजने खारा पाणीथी सींचवामां आवे तो हीणुं अने मीठुं पाणी पावामां आवे
तो मधुररूपे फळे छे. तेम कुतत्त्वोना श्रवणथी हलकुध्यान (आर्तरोद्रध्यान अथवा परमां तथा रागमां कर्तृत्व
ममत्वरूप कूध्यान) अने उत्तमतत्त्वोना श्रवणथी उत्तमध्यान प्राप्त थाय छे. माटे जे विवेकवान् छे, असली
आत्मस्वरूपने प्राप्त करवा मागे छे, तेओ परमां अने रागादिमां कर्ता, भोक्ता अने स्वामीत्वनी श्रद्धाने
तथा काम भोग बंधननी प्रवृत्ति तरफ ढळेली बुद्धिने खारा पाणीनी जेम हंमेशने माटे छोडे; अने
महाप्रयत्नथी मधुर जळ समान सुतत्त्वोनुं ज्ञानी पासेथी श्रवण करे.
निश्चय–आश्रय अने तेनाथी थवा योग्य कल्याणनी प्राप्ति अवश्य थशे. माटे विद्वानोए महान प्रयत्नथी
उत्तमतत्त्वोनुं श्रवण करवुं जोईए.(योगसार–अमितगति आचार्य)