Atmadharma magazine - Ank 224
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४८८ : १प :
मोक्षगामी
चक्रवर्ती
वज्रनाभि
(आदीपुराण उपरथी)
भरतक्षेत्रना प्रथम तीर्थंकर श्री रूषभदेव भगवानना पूर्वभवनी आ कथा छे.
तेओश्रीए तीर्थंकर थवा पहेलां त्रीजा भवमां सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनिदशामां षोडशकारण
भावनानुं चिंतवन कर्युं हतुं. आ भावनाओनुं उत्तम रीते चिंतवन करतां ते श्रेष्ठ मुनिराजे त्रण
लोकमां क्षोभ उत्पन्न करवावाळी तीर्थंकर नामनीमहापुण्य प्रकृतिनो बंध कर्यो हतो.
विशुद्ध भावनाओने धारण करवावाळां वज्रनाभि मुनिराज ज्यारे पोताना विशुद्ध
परिणामोथी उत्तरोत्तर विशुद्ध थई रह्या हतां त्यारे तेओ उपशम श्रेणीपर आरूढ थयां अने अनुक्रमे
उपशांत मोह (११मुं गुणस्थान) गुणस्थाने प्राप्त थयां. संपूर्ण मोहनीय कर्मना उपशांतपूर्वक तेमणे
अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त कर्युं. त्यार पछी अंतर्मुहूर्त बाद तेओश्री फरी पण स्वस्थान
अप्रमत नामना सातमा गुणस्थान अंतर्मुहूर्त स्थिर थईने तेओ उत्कृष्ट तपने जाणता हतां, उत्कृष्ट
पूजाने जाणतां हता, अने उत्कृष्टपदने (सिद्धपदने) जाणतां हता.
त्यार पछी आयुना अंतसमयमां ते बुद्धिमान मुनिराज श्री वज्रनाभिए श्रीप्रभ नामना पर्वत
पर प्रयोपगमन नामक संन्यास धारण करी शरीर अने आहारथी ममत्व छोडी दीधुं. आ प्रमाणे
प्रायोपगमन संन्यास धारण करी वज्रनाभि मुनिराज पोताना शरीरनो न तो स्वयं उपचार करता
हता अने न बीजा कोई पासे उपचार कराववानी ईच्छा राखतां हतां. तेओ शरीरथी ममत्व छोडीने
आ प्रकारे निराकुल थई गया हता के जेम कोई शत्रुना मरेला शरीर छोडीने निराकुल थई जाय छे.
जो के ए समये एमना शरीरमां चामडी अने हाडकां ज बाकी रही गयां हतां. तेमनुं पेट पण अत्यंत
कृश थई गयुं हतुं. तो पण तेओ पोताना स्वाभाविक धैर्यनुं अवलंबन लई घणां दिवसो सुधी
निश्चल चित्त थई बेसी रह्यां. मुनिमार्गथी च्युत न थवां अने कर्मोनी विशाल निर्जरा थवानी ईच्छा
करतां थका वज्रनाभि मुनिराजे क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नागन्य, अरति, स्त्री, चर्या,
शय्या, निषधा, आक्रोश, वध, याचन, अलाभ, अदर्शन, रोग, तृणस्पर्श, प्रज्ञा, अज्ञान, मळ अने
सत्कार पुरस्कार ए बावीश परिषह सहन कर्या हता.
बुद्धिमान, मदरहित अने विद्वानोमां श्रेष्ठ