जेठ : २४८८ : प :
जो चैतन्यनेत्र खोली आ आत्मा पोतानी अनंत चैतन्यमय शक्तिनुं अवलोकन करे, नित्यचिदानंद स्वरूप ते
ज हुं छुं एमां एकता बुद्धि करे तो आ स्थितिमां पण आत्मज्ञान थाय ने भवभवनो अंधापो अने भाव
निद्रा टळे, चैतन्यनेत्रमां अंधापो नथी.
प. पूर्वे घणा पुण्यथी अत्यारे मनुष्यभव पाम्यो पण आत्मज्ञानवडे भवचक्रनो आंटो न टाळे तो
मनुष्यपणुं शुं कामनुं? “भवचक्र” ना टुकडामां भावरहित थवानी वात बतावी छे. जेम फेरकुदडीनी रमतमां
चक्रावो फरनारने स्थिर थवुं होय तो तेनाथी उलटी दिशामां चक्कर मारे तो स्थिर रही शके. तेम आ जीव
ऊंधी द्रष्टिवडे अनादिथी भ्रमण करी रह्यो छे. बहारमां अनुकूळता–प्रतिकूळता मानी, दुःखी थाय छे. पण
अंतरमां द्रष्टि वाळे ने विचार करे के हुं तो नित्य जाणनार स्वरूपे छुं. दुःख मारूं स्वरूप नथी. शरीर, वाणी,
संयोग मारामां नथी, हुं तेना आधारे नथी. दरेक आत्मामां अनंतज्ञानादि शक्ति सदाय छे. दरेक आत्मामां
शक्तिरूपे परमात्मपणुं छे. जेम काचा चणामां मीठास भरी पडी छे, शेकतां ते प्रगटे छे. तेम आत्मामां आनंद
भर्यो छे, ते सम्यग्ज्ञानवडे स्वादमां आवे छे. तेनी खबर नथी तेथी राग–द्वेष, पुण्य–पापना विकारमां सुख
मानी बेठो छे.
६. आ बहारनां नेत्र न होय त्यां अरेराटी छूटे छे पण अंदरमां शाश्वत चैतन्यतत्त्वने भूली रह्यो छे
ते अनादिनो भाव अंधापो छे. ते अज्ञानमां अंध थईने भव–भवमां भटकी रह्यो छे तेनी अरेराटी थती
नथी के अरे! आ अज्ञानना अंधापा केम टळे?
७. हुं कोण छुं ने मारो आत्मा शुं चीज छे तेनुं सत्समागमे भान करीने, अंतरमां सम्यग्ज्ञानचक्षु
खोले तो ज भवभवनो अंधापो टळी जाय.
८. गांधीजी ज्यारे विलायतथी आव्या त्यारे श्रीमद् राजचंद्रजीना परिचयथी तेमना ज्ञानना
विकासनी असाधारण ताकात देखीने प्रभावित थया हता.
९. हुं कोण छुं? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं? एनो प्रथम विचार जोईए. बहारमां सुख मानी “सुख
प्राप्त करतां सुख टळे छे. लेश ए लक्षे लहो, क्षणक्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो! राचि रहो!” देहमंदिरमां
आत्मा शाश्वत ज्ञान–आनंद स्वरूपे छे तेनुं भान करी, हुं अविनाशी ज्ञान छुं एवो अनुभव करतां
भवचक्रनां आटां टळी जाय छे.
१०. आ शरीर तो हाडका छे, धूळ छे. आत्मा सच्चिदानंदमय छे, तेने भूलीने परने लईने सुख माने
छे पण पराश्रये सुख प्राप्त करवाना उपायो बधा मिथ्या छे. एनाथी तो सुख–शांति स्वाधिनता टळे छे. एक
पगनो अवयव तुटी जाय तो राड नाखे, तो पछी आखो देह छोडतां तो केटलो दुःखी थशे? संसारना मान–
अपमान खातर मानेलां दुःखथी छूटवा देहने जतो करवा बळी मरे छे अने त्यां कदाच राड पण न पाडे.
जुओ! आमांथी ए सिद्धांत नीकळे छे के आ शरीर न होय तो पण एकलो तेनाथी जुदो रहीने पण सुखी
थई शके छे. एवो सुख–स्वभाव एकलो पोतामां छे एम–साबित थाय छे.
११. देह छोडीने सुखी थाउं–एनो अर्थ ए थयो के, देहमां सुख के आनंद नथी, पण आत्मामां ज
स्वाधीन सुख अने आनंद छे ने ते अंतरमां सम्यग्ज्ञान नेत्रवडे देखाय छे. अनुभवमां आवे छे. आ
अंतरना उपायवडे भवनो अंत आवे छे अने आत्मा एकलो जड शरीर विनानो, ज्ञानानंद शरीरी स्वयं
सुखरूपे थईने सदा मुक्त रहे छे.
१२. बाळ, युवान, वृद्ध अवस्था देहने छे, आत्माने नथी. अंदर पोते चैतन्यमूर्ति छे तेने ज्ञानचक्षुथी
देखे तो स्वयं ज्ञान छे. एनुं भान करी वारंवार तेनो अनुभव करवो ते ज शांति प्रगट करवानो उपाय छे.
शांति बहारथी मळे एम नथी.
१३. बहारमां हिंसा के अहिंसा नथी. पुण्य–पापनी लागणी दुःखदाता छे, ते चैतन्यनी जागृतिनी
घातक होवाथी हिंसा छे, माटे विकारनी रुचि छोडी,