Atmadharma magazine - Ank 224
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : २२४
अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपनी रुचि करे, तेनो आश्रय करे, तो स्वाश्रय स्थिरताना बळवडे क्रमे–क्रमे विकार
टळीने आनंद प्रगटे; पूर्णआनंद ते मुक्ति छे. आत्मामां श्रद्धाज्ञान लीनतावडे एकाग्र थवुं ते तेनो
उपाय छे–वीतरागी द्रष्टि अने चारित्र ते अहिंसा छे, ते आत्मानी शुद्ध परिणति छे.
“मोक्ष कह्यो निज शुद्धता ते पामे ते पंथ, समजाव्यो संक्षेपमां सकलमार्ग निर्ग्रंथ”
१४. जेम नाळीएरमां उपरनां छालां अंदरनी काचली अने रातडथी जुदो टोपरानो गोळो छे
तेम आत्मा शरीर, जडकर्म अने पुण्य–पापनी लागणीथी जुदो ज्ञानानंदमूर्ति छे. ते हुं छुं एनो
निर्विकल्प अनुभव ते प्रथम सम्यग्दर्शनरूपी उपाय छे, ते विना त्यागी थाय, बावो थई जंगलमां,
एकान्तमां मौन रहे, वगेरे उपायो करे तोपण आत्मामां अंशमात्र साचो धर्म न थाय, आत्मानी जेम
छे तेम कींमत आंकता न आवडे तो बधुं व्यर्थ छे, पुण्य करे तो देव वगेरे थाय पण जन्म–मरणना
आरा न आवे.
१प. अहो! आत्मानी ताकात अपार छे, अचिंत्य छे. दरेक आत्मा परमेश्वर थवानी
लायकातवाळो छे. श्री राजचंद्रजीए एकवार दुकाने बेठाबेठा चोपडामां लख्युं के–हुं सच्चिदानंद
परमात्मा छुं. जुओ, आवी अचिंत्य शक्ति दरेक आत्मामां छे तेनुं भान करतां भवनो अंधापो टळे ने
भवना अंत आवे. अनंतसुख स्वरूपे आत्मा एकलो रहे. आ मुक्तिनो उपाय छे, मुक्तिमां शरीर ज
नथी. पछी आंखनी वात क्यां रही? आवुं एकलुं अशरीरी सिद्ध परमात्मपद प्रगटे तेनुं नाम मुक्ति
छे; त्यां शरीर, ईन्द्रियो नथी छतां परिपूर्ण ज्ञान अने सुख आत्मामां कायम वर्ते छे. एनी श्रद्धा–
ओळखाण करी शकाय छे.
१६. दरेक आत्मामां दरेक समये शुद्धता–पवित्रता एटली पडी छे के तेनी प्रतीति करवा मागे तो
प्रत्यक्ष पोते जाणीने अनुभवी शके छे, पण ए रीते कदी प्रयत्न कर्यो नथी. बहारमां सेवा, दानादि करे
तो पुण्य थाय पण जन्म–मरण न मटे.
१७. “निर्ग्रंथनो पंथ भव अंतनो उपाय छे.” अंदर राग–द्वेष–मोहनी गांठ रहित शुद्धचिद्रूप छुं.
तेने ओळखी अंदर रमणता–केली करे तो तेमां कोईनी सहायनी जरूर नथी ने ते उपायवडे आत्मा
निर्मळदशा पोतामांथी प्रगट करी शके छे. बाह्य अंधदशामां पण आत्मामां तेनी द्रष्टि अने एना
अभ्यासवडे निर्मळता करी शके छे.
१८. नरकक्षेत्र नीचे छे, तीव्रपापना फळमां त्यां करोडो वर्षनुं आयुष्य बांधीने उपजे छे.
विरोधीए वारंवार शरीरना खंडखंड करी नाखे छे, सळगावे छे. पाछुं क्षणमां आखुं शरीर थई जाय छे.
जेम पारो वींखाईने पाछो एकठो थई जाय तेम नारकीमां असंख्यवार शरीर वींखाईने अखंड थई
जाय छे, आवी घोर प्रतिकूळताना संयोग छतां त्यां ते नारकीनो जीव पूर्वनुं जातिस्मरणज्ञान करी शके
छे. सत्यस्वरूपनो उपदेश याद करी, पोताना आत्माने संयोगथी, शरीरथी अने रागथी जुदो
ज्ञानानंदपणे अनुभवी शके छे. एवुं सम्यग्दर्शन नारकीने पण थई शके छे. त्यां घणा लांबा समयनी
प्रतिकूळता पण आडी आवती नथी, तो अहीं तो शुं प्रतिकूळता छे? नारकीमां हजारो–लाखो वर्ष सुधी
आवी प्रतिकूळता होवा छतां पूर्वभवे सत्संगमां आत्मानी साची वात धारणामां पडी होय तेने याद
करी रुचिमां लावे छे, ते विचारे छे के–अरे, आत्मा देहथी जुदो, रागथी जुदो, नित्य–ज्ञान–आनंदमय
छे, तेना आलंबनथी ज कल्याण छे. एवी वात पूर्वे संतो पासेथी सांभळेली पण ते वखते रुचि न
करी, दरकार न करी तेथी आवो अवतार थयो–एम स्मरण करतां अंदरमां भेदविज्ञानरूपी ज्ञानचक्षुवडे
भिन्न आत्मानुं–चिदानंदस्वरूपनुं भान करे छे–आ रीते तेना ज्ञानचक्षु त्यां पण खुली जाय छे ने
परमात्मा जे प्रकाशनो अतीन्द्रिय आनंद अनुभवे छे ते ज जातनो अंशे आनंद नरकमां पण ते
अनुभवे छे