: ८ : आत्मधर्म: २२४
अहो! ईन्द्रो आवीने नाचता. भगवानना माता–पिता पासे आवीने तांडव नृत्य करी, भक्तिवडे
तेमनो ज महिमा गाता हता. ईन्द्र एकावतारी छे, ईन्द्राणी पण एकावतारी छे. तेओ मान सहित नाचे छे.
अहो! आ आत्मा आ भवे परमपवित्रतावडे परमात्मपद पामशे. अनादि–अनंत संसार हतो ते तोडीने आ
भवे सादि अनंत परमानंदने पूर्ण करवानुं काम करशे.
ईन्द्रोने भान छे के अमे पण निर्मळ श्रद्धावडे आत्माने श्रध्ध्यो छे; अने अल्पकाळे मोक्ष जवुं ज छे.
एवी निःशंकपणे खात्री छे छतां जेम माता–पिता पासे बाळक नाचे तेम जगत्पिता तीर्थंकरनो जन्म देखीने
ईन्द्रो नाची ऊठे छे. अंतरमां भेदविज्ञान वडे आत्मानुं भान छे, बहारमां नम्रता–विनय छे ईन्द्र पोते चोथा
गुणस्थाने छे. तीर्थंकर पण जन्मकाळे चोथा गुणस्थाने छे छतां तेमने धर्मना नायक जाणी तेमना प्रत्ये एवी
भक्तिनो उल्लास ईन्द्रने आवी जाय छे.
आजना मंगळदिवसे वीरभगवान जन्म्या हता, आत्मानुं उत्तमवीर्य (बळ) फोरवीने अनेक लायक
जीवोने पवित्र आत्मबळ फोरववामां निमित्त थयां; तेथी तेमनुं बहुमान लावी, तेमनां कल्याणक ऊजवीए
छीए.
सं. १९९१ ना चैत्र सुद १३ ना दिवसे सोनगढमां आ क्षेत्रे आवीने परिवर्तन कर्युं हतुं. तेने आजे
२६ वर्ष पूर्ण थयां, २७मुं वर्ष बेसे छे.
महावीर प्रभुए तो परिवर्तन करीने आखो आत्मापर्यायमां बदली नाख्यो, असंख्य प्रदेशे अनंत
केवळज्ञानरूपी अनंतसूर्य प्रगट करी परमात्मा थयां. एमना जन्मने, धन्य घडी धन्य अवतार, धन्य घडी
धन्य भाग्य. एम ईन्द्र–ईन्द्राणीने पण भक्ति–उत्साह आवे छे.
वीरप्रभुए ए भवे भगवती दीक्षा लीधी, चैतन्यना पूर्ण स्वरूपमां एटली प्रीति जागी के
चारित्रदशामां आनंद अमृतना दरिया ऊछळ्या, आत्मा अमृतनो सागर छे. अंदरमां पूर्ण आनंद पड्यो छे.
अंतर एकाग्रताथी अनुभवनो सागर ऊछळवा मांडे छे. ऊग्र पुरुषार्थवडे केवळज्ञान पाम्या अने कार्तिक वद
अमासना दिने, चौदशनी पाछली रात्रे पावापुरीथी निर्वाण पाम्या.
केवळज्ञान पाम्या पछी तीर्थंकरने ईच्छा विना उत्कृष्ट वाणीनो योग होय छे. तेने प्रवचन कहे छे. ते
प्रवचननो सार श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहे छे. तेमने आ भवमां तो साक्षात् भगवान महावीरनो योग न
हतो, परोक्ष भक्ति हती, पण महाविदेह क्षेत्रमां ज्यां साक्षात् सीमंधर भगवान छे तेमनी प्रत्यक्ष भक्ति
करेली छे–जुओ तेमनां पुण्य केवां अने पवित्रता केटली? प्रवचनसार गा. १७२नी टीकामां अलिंग ग्रहणना
पांच बोल थया.
(१) ईन्द्रियज्ञानथी जाणवानुं काम करे. ईन्द्रियोना आलंबनथी जाणे तेने आत्मा न कहीए. (२)
ईन्द्रियोथी जणाय ईन्द्रिय प्रत्यक्ष थाय एवो आत्मा नथी; (३) ईन्द्रियगम्य चिन्ह द्वारा जणाय एवो
आत्मा नथी. (४) बीजाओ वडे–एकला परोक्षज्ञाननो विषय नथी. स्वसंवेदन ज्ञानमां निश्चय स्वज्ञेयमां
जेणे पोतानां आत्माने जाण्यो न होय ते बीजाना आत्माने एकला अनुमानथी जाणी शके नहि. (प)
आत्मा केवळ अनुमान करनारो ज नथी. (६) बाह्य कोई चिन्हथी, पराश्रयथी नहि पण अंतर्मुख ढळे एवा
स्वभाव ज्ञानवडे ज जणाय एवो आत्मा छे.
अनंतकाळमां बीजानुं महात्म्य कर्युं पण पोतानी चैतन्य सत्तानी किंमत करतां न आवडी. परद्रव्यना
महात्म्यथी स्वद्रव्यनुं महात्म्य न आवे. शरीर, ईन्द्रिय वगेरे साधन सारां होय तो धर्म थाय, व्यवहार
रत्नत्रयनो शुभराग होय तो लाभ थाय एम संयोग अने विकारथी आत्मानो महिमा माने तेने आत्मानी
किंमत नथी.
जे ज्ञान वर्तमान पराश्रयमां ढळे छे ते ज्ञान स्वभाव तरफ वळे तो हित थाय. अखंड स्वज्ञेय तरफ
ढळतां ज्ञान– स्वभाव वडे जणाय एवो आत्मा स्वानुभव प्रत्यक्ष छे. आत्मनिर्णयमां तेनुं यथार्थपणुं
लावीने, ज्ञानने अंतर्मुख करतां एकरूप स्वभावना वेदन वडे ज सम्यग्दर्शन अने भेदज्ञान थाय छे. ते
भेदज्ञानने आत्मधर्म कहेल छे.
धु्रव स्वभावने पकडी स्वसन्मुख थनारा स्वसंवेदन