Atmadharma magazine - Ank 225
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : २४८८
तेओ बधा भेदज्ञानथी ज पाम्या छे. कोईपण प्रकारनो राग ते अपराध छे. दया, दान, व्रत, तप, पूजा,
भक्तिना शुभभाव हो के हिंसा, जुठ, चोरी आदिना अशुभ (पाप) भाव हो ते बंने आस्रव छे.
अनात्मा छे. हुं तेनाथी जुदो छुं, असंग, अविकारज्ञानमय छुं एवुं भान करीने अंतर्मुख थवुं–ए संवर
निर्जरा छे. ए विना व्रत आदिना शुभभावने व्यवहार धर्मनो आरोप पण आवतो नथी. बहारमां
शुभभाव तथा देहनी क्रियाथी अथवा तेना आधारे धर्म थाय एम जे माने तेने अभव्य समान
अनादिनो मिथ्या अभिप्राय ज छे.
प्रथम पापने छोडी, पुण्य करीए तो हळवे हळवे निश्चय धर्म थशे एम माननारा पण रागने–
अनात्माने आत्मा माने छे. पुण्यमां धर्म नथी माटे पाप होय तो वांधो नथी. एम वात नथी. ऊंधी
खतवणी, ऊंधी मान्यतानुं पाप केवी रीते छे ते बताववामां आवे छे. हित–अहितरूप पोताना ज भाव छे.
तेने जे जाणतो नथी तेथी जीव तो सर्वत्र भय अने दुःखनो अनुभव करे छे. ज्ञानीने भय होतो नथी, कारण
के तेओ सदाय सर्व प्रकारनां पुण्य–पाप अने तेना फळ प्रत्ये निरभिलाष होवाथी कर्म प्रत्ये (शुभाशुभ
आस्रव प्रत्ये) अत्यंत निरपेक्ष वर्ते छे. नित्य ज्ञाता स्वभावनी अपेक्षा अने समस्त विभाव व्यवहारथी
उपेक्षारूप आत्मभावमां बळवानपणुं छे. तेथी खरेखर तेओ अत्यंत निःशंक, द्रढ निश्चयवाळा होवाथी
अत्यंत निर्भय होय छे.
आलोक–परलोकना भय केम होता नथी? तेनुं काव्य कहे छे. आ चैतन्य स्वरूप लोक ज परथी
भिन्नपणे परिणमता आत्मानो लोक छे. जेटलुं स्वज्ञेय छे तेटलो ज लोक छे. जे शाश्वत अने सर्वदा प्रगट छे.
संग अने विकार विनानो मात्र चित्तस्वरूप ज्ञानानंदथी परिपूर्ण ज्ञायक ते ज मारो चित्तस्वरूप लोक छे. तेमां
ज एकत्वने अनुभवतो ज्ञानी विचारे छे के आ अविनाशी, समस्त परद्रव्यरूप लोकथी जुदो ज्ञानस्वरूप लोक
के जे सदा अंतरंगमां प्रगट छे ते ज मारो लोक छे, तेनाथी बीजो कोई लोक के परलोक मारो नथी. आम
सावधानताथी जाणे छे, तेथी ज्ञानीने आ लोक के परलोकनो भय क््यांथी होय? भूमिकाने योग्य शुभाशुभ
राग आवे छे. तेथी मारुं भेदज्ञान नाश थई जशे एवो भय पण ज्ञानीने होतो नथी. ते तो पोते
ज्ञानस्वभावनी अधिकताथी निरंतर, निशंक–निर्भय वर्ततो थको सहज ज्ञानने ज सदा अनुभवे छे. वर्तमान
दशामां ज्ञान छे. ते द्वारा स्वसन्मुख थईने स्वज्ञेय तरीके पोताना आत्माने जाणे छे के आ मारो स्वलोक छे,
ते ज मारुं अविचल धु्रव ज्ञानधाम छे, शाश्वत शरण छे. तेना आश्रयथी सर्व समाधान अने निःशंकता–
निर्भयता होय छे.
ए विना त्यागी साधु अनंतवार थयो तो पण अशंमात्र रागना अभावरूपे निःशंक निर्भय थयो
नहि.
“मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रैवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो”
व्रतादि तथा दया, दान, पूजा, भक्तिना विकल्प जे आस्रवतत्त्व छे तेने हितकर मानी मंद कषाय करी
नव ग्रैवयक सुधी गयो, पण आत्मानी यथार्थ समजण करी नहि तेथी लेश मात्र पण सुख पाम्यो नहि.
पोते अनादिथी छे. शुभाशुभभाव (पुण्यपाप) करतो आव्यो छे. तेना फळमां क््यां हतो, तेनी
अत्यारे खबर नथी. तेथी शुं त्यां पोते न हतो? अनंत पुद्गल परावर्तनमां ८४ लाख योनि (उत्पत्ति
स्थान) मां एकलो दुःख भोगवतो हतो. पुण्य–पापना वेदनमां आखो खोवाई गयो हतो. भेदज्ञान
विना प्राण धारणरूप दीनतावडे अनंत काळथी रखडे छे. पापमां हार्यो ने जरा पुण्यनी सामग्री मळी,
शुभभाव थया तो हुं जीती गयो–एम अज्ञानी ए मानी लीधुं. मिथ्यात्वरूपी योद्धाए मोटा मोटा पंडित,
त्यागी बधाने