Atmadharma magazine - Ank 225
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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अशाड : २२प : १प :
पछाडया छे. ए मिथ्यात्वने सम्यग्दर्शनरूपी संवर जीते छे. एमां विशेष शुद्धिरूप निर्जरा फेलाय छे.
निर्जराना त्रण प्रकार छे. (१) अंशे शुद्धिनी वृद्धिरूपभाव, (२) अंशे अशुद्धिनी हानि, अने (३) जड
कर्मोनी अंशे हानि.
एकला शुभभावथी पापनी निर्जरा थती नथी. मोटुं पाप तो अतत्त्वश्रद्धारूप मिथ्याअभिप्राय छे.
त्रिकाळ निर्विकार ज्ञानस्वभावथी पोताने एकरूप माने अने रागादिथी जुदो जाणी, ज्ञानस्वभावमां
अधिकपणे वर्ते ते ज्ञानी छे. कर्मनुं जोर होय ते आत्मामां न वर्ती शके एवुं कोई काळे बनतुं नथी, पण
अज्ञान वडे आ जीव ज ऊंधी मान्यता कर्या करे छे. राग, द्वेष, पुण्य, पाप मारां अने हुं एनो कर्ता, एम
आस्रवनी भावनारूप अपराध जीव पोते ज करे छे. एकेन्द्रिय निगोद दशामां पण जीव पोताना दोषथी रखडे
छे. गोम्मटसार शास्त्रमां लख्युं छे के “भाव कलंक सुप्रचुरा निगोद वासं न मुंचति” त्यां पोताना मलिन
भावोनी उग्रताथी निगोदस्थानने जीव छोडतो नथी. एम कह्युं छे. कोई एम माने छे के असंज्ञी पंचेन्द्रिय
सुधीना जीवने जडकर्मनुं जोर छे. त्यां स्वतंत्र नथी, पुरुषार्थ नथी. तो ए वात त्रणे काळे जूठ छे.
निगोदवासमां पण दरेक जीव चैतन्यमूर्त्ति भगवान समान ज छे. पण वर्तमान भूलरूपे थयो थको
भेदज्ञानना अभावथी ज रखडे छे. देह, मन, वाणी, शुभाशुभ विकल्प ए चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे, तेनी
विरुद्ध जाति छे–तेम नहि मानतां तेमां एकत्वबुद्धि करवी, पराश्रयथी लाभ मानवो ए संसारमां रखडवानुं
कारण छे, कोई बीजाए रखडाव्यो छे एम नथी.
अंतरंगमां प्रगट चैतन्यज्ञानघन वस्तु त्रणेकाळे परद्रव्य–परभावथी भिन्न छे, एम भान करी
अंतरमां ढळवाथी निश्चयथी सम्यग्दर्शन–भेदज्ञान थाय छे. शुक्लध्यान अने मोक्षपण भेदविज्ञानथी पमाय
छे. सर्वत्र हितनो उपाय एक ज प्रकारे छे. हितनुं कारण पोते ज छे. अहितनुं अर्थात् रखडवानुं कारण पोते
ज छे. कांई जडकर्म अने कुगुरुथी रखडयो एम नथी.
भेदज्ञानीने आ लोक के परलोकनो भय होतो नथी. पण नित्य निर्भय ज्ञातास्वभावना आश्रये
सावधान वर्ते छे. तेथी समये समये शुद्धिनी वृद्धिरूप निर्जरा थाय छे. स्वरूपणाने लीधे चैतन्य अस्तिपणे
अने रागादि परभावो परपणे–विरुद्धपणे जणाय छे.
भेदज्ञान विना जन्म, जरा, मरणनो अंत नथी. जेवुं सर्वज्ञना आगममां कह्युं छे तेवुं ज गुरुगमे
प्रमाण करी युक्ति अने स्वानुभव वडे निःसंदेह भावभासन थवुं ते भेदविज्ञान छे. ए विना विकल्प अने
शब्दोनी धारणा राखी माने के अमने साचुं ज्ञान छे तो ते भ्रम छे. (युक्ति–नय–प्रमाणद्वारा)
अहो! पराश्रय विनानो चैतन्यआत्मा अत्यारे पण देहथी अने रागादिथी भिन्नपणे छे, वर्तमान
दशामां शुभ–अशुभभाव (पुण्यपाप) होवा छतां तेनाथी जुदा छे. पूर्णस्वभावनी निर्मळ श्रद्धा–ज्ञानवडे
पोतामां एकमेक वर्ते छे. पुण्य–पाप, व्रत–अव्रतना भाव बधा आस्रवतत्त्व छे, चैतन्य तेनाथी भिन्न छे.
वर्तमान भूमिकाना (दशाना) प्रमाणमां भिन्न भिन्न विकल्प आवे छे ते रूपे थनारो हुं नथी, पण तेने
जाणनार हुं छुं, स्वाश्रये वर्ततुं ज्ञान सर्व रागादिथी अधिक छे अने स्वभावमां अभेदता–एकताने अभिनंदे
छे.
आ चैतन्य (ज्ञाताद्रव्य) स्वरूप लोक बहारमां क््यांय व्यापक नथी पण अंतरंगमां सर्व काळे प्रगटे
छे, अने पोताना अनंत ज्ञानादि गुणमां व्यापक छे, वळी ते सर्वज्ञतानी शक्ति सहित छे, जे प्रगट थतां
तेना ज्ञानमां त्रणकाळ–त्रणलोकवर्ती समस्त द्रव्य–गुणपर्याय एक साथे अत्यंत स्पष्टपणे जणाय छे, एवो
आत्मा अत्यारे पण पोताना सकल व्यक्त स्वभाव सहित छे. आनो निर्णय करवामां क्रमबद्ध पर्यायनुं ज्ञान
अने ज्ञातापणानो साचो पुरुषार्थ आवे ज