Atmadharma magazine - Ank 225
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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ते आ छे के जेनी पासे परिवार आदि सामग्री विद्यमान छे एने ए सामग्रीनी सत्ता मात्रथी (होवा
पणांथी) सुख थाय छे? अथवा एनो उपभोग करवाथी थाय छे? जो सामग्रीनी सत्ता मात्रथी आपने सुख
मानवुं योग्य लागे छे तो ए राजाने पण सुख थवुं जोईए के जेने ज्वर–ताव चढेलो छे अने राणीवासनी
स्त्रीओ, धन, ऋषि तथा प्रतापी परिवार आदि सामग्री तेनी पासे ज हाजर छे. कदाचित् आ प्रमाणे कहो के
सामग्रीना उपभोगथी सुख थाय छे तो तेनो उत्तर–पहेलां आपी देवामां आव्यो छे के परिवार आदि
सामग्रीनो उपभोग करवावाळो एनी सेवा करवावाळो पुरुष अत्यंत श्रम अने कलेशने प्राप्त थाय छे.
आथी आवो पुरुष सुखी केवी रीते थई शके? (चालु)
महावीरना
बोधने पात्र
सत्पुरुषोनां चरणनो ईच्छुक, सदैव बोधनो
अभिलाषी, गुणपर प्रशस्त भाव राखनार, ब्रह्मचर्यमां
प्रीति राखनार, ज्यारे स्वदोष देखे त्यारे तेने छेदवानो
उपयोग राखनार, उपयोगथी एकपण पग भरनार,
(सम्यक्) एकान्तवासने वखाणनार, तीर्थादि प्रवासनो
उछरंगी, आहार–विहार–निहारनो नियमी, पोतानी
गुरुता (महत्ता) दबावनार एवो कोईपण पुरुष
(आत्मा) ते महावीरना बोधने पात्र छे.
–श्रीमद् राजचंद्र
स्वाश्रयी भावथी मुक्ति
हुं एक अखंड ज्ञायक मूर्त्ति छुं पराश्रय विना एकलो
स्वालंबी पूर्णज्ञानस्वभावी अनादि अनंत छुं, कोई
परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ, परभाव अने विकल्पनो एक
अंश पण मारो नथी. मारो आत्मा ज मारे माटे धु्रव छे,
शरणरूप छे एवो स्वाश्रयीभाव रहे ते मोक्षनुं कारण छे
अने विकल्प–रागनो एक अंश पण मने आश्रयरूप छे
एवो पराश्रयभाव रहे ते बंधनुं कारण छे.