Atmadharma magazine - Ank 225
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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अशाड : २४८८ : २प :
आहार छे एम बोलवुं ते जूठुं छे. मुनिने ख्याल आवे के आ दोषवाळो आहार छे, तो ले नहि. अशुभथी
निवृत्ति ते व्यवहार गुप्ति छे. व्यवहार गुप्ति आस्रव छे ने निश्चय गुप्ति संवर छे; एम बराबर समजवुं
जोईए. कोई कहे छे के निश्चय सम्यग्दर्शन सातमा गुणस्थाने होय छे तो ते भूल छे. निश्चय सम्यग्दर्शन
चोथा गुणस्थानथी होय छे. त्यार पछी मुनिपणुं आवे छे. मुनि पांच समितिनुं पालन करे छे.
व्रतना बे भेद छे–एक निश्चयव्रत छे ने बीजुं व्यवहारव्रत छे. पोताना स्वभावने चुकी पांच
महाव्रतना परिणाम आवे ते निश्चयथी हिंसा छे; पण आत्मानुं भान होय तेना अहिंसाना शुभभावने
व्यवहारथी अहिंसा कहे छे. अमारा मुनि धन आदि राखता नथी, वस्त्र राखता नथी, पोताना माटे वेचातुं
पुस्तक ले नहि, एवा परिणाम पण आस्रव छे. तेना वडे मुनिनी परीक्षा करे तो ते साची परीक्षा नथी.
वळी उपवास, अभिग्रह के नियमथी मुनिनी परीक्षा करे तो ते पण यथार्थ नथी. घणीवार जीवे एवा
उपवासादि करेल छे. टाढ तडका सहन करवा ते मुनिपणुं नथी. अंतरनो निर्विकल्प अनुभव ते मुनिपणुं छे.
तेनी परीक्षा अज्ञानी करतो नथी. मुनि थईने तीव्र क्रोधादि करे ते तो व्यवहाराभासमां पण आवतो नथी;
पण कोई मुनि बाह्य क्षमाभाव राखे ने तेना वडे परीक्षा करे तो ते पण साची परीक्षा नथी. बीजाने उपदेश
आपे ते मुनिनुं लक्षण नथी. उपदेश तो जडनी क्रिया छे, आत्मा ते करी शकतो नथी. आवां बाह्य लक्षणोथी
मुनिनी परीक्षा करे छे ते यथार्थ नथी. केमके अन्य मतमां परमहंसादिमां पण आवो गुण होय छे. दया पाळे,
उपवासादि करे छे–ए लक्षणो तो जैनमां रहेल मिथ्याद्रष्टि मुनिओमां तथा अन्यमतिओमां पण मालुम पडे
छे. माटे तेमां अतिव्याप्ति दोष आवे छे. अतिव्याप्ति, अव्याप्ति ने असंभव दोषरहित परीक्षा न करे ते
जीव मिथ्याद्रष्टि छे. शुभभाव वडे साची परीक्षा थाय नहि.
क्रोधादि परिणाम टाळवा ते आत्माश्रित छे, शुद्ध अशुभ अने शुभभाव ते जीवना परिणाम छे,
देहनी क्रिया ते जडना परिणाम छे एनी भिन्नता स्वतंत्रतानी खबर अज्ञानीने नथी. क्षुधा जडनी पर्याय छे.
अंतर सहनशीलताना परिणाम थाय छे ते जीवाश्रित छे. क्षुधानी उष्णता जीवने नथी. अज्ञानी माने छे के
मने क्षुधा लागी. विभाव परिणाम जीवना छे. सम्यक्त्वीने पण विभाव परिणाम आवे छे. ते समजे छे के
मारी नबळाईने कारणे ते आवे छे, परने लीधे आवता नथी. परनी दयानो भाव थयो तेमां शरीरनी क्रिया
जडने आश्रित छे ने पोतामां अनुकंपाना भाव थया ते जीवाश्रित छे. परिग्रह न आववो ते जडने आश्रित
छे ने राग मंदता थवी ते जीवाश्रित छे–आम जीव–आश्रित भाव अने पुद्गलआश्रित भावनी जेने खबर
नथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
उपवासमां रागनी मंदता थवी ते जीवने आश्रित छे, खावाना पदार्थो न आववा ते जडने आश्रित
छे; क्रोधना परिणाम थवा ते जीवने आश्रित छे, लाल आंख थवी ते जडने आश्रित छे, उपदेश–वाक््यो जडने
आश्रित छे उपदेश देवोनो भाव जीवने आश्रित छे–आम बंनेनां भेदज्ञाननी खबर नथी, ते साची परीक्षा
करी शकतो नथी. चैतन्य ने जड असमानजातिपर्याय छे. जडनी पर्याय माराथी थाय छे–एम अज्ञानी माने
छे, ते असमानजाति मुनिपर्यायमां एकत्वबुद्धिनी मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे.
मुनिनुं साचुं लक्षण
जैन मुनि होय तेने निश्चयमां त्रण कषाय चोकडीना अभावरूप वीतरागता तथा व्यवहारमां २८
मूळगुणोनुं पालन होय छे. मुनिने व्यवहार होय छे खरो, पण व्यवहारथी मुनिनी साची परीक्षा थती नथी.
निश्चय सम्यक्दर्शन ज्ञान–चारित्रनी एकतारूप मोक्षमार्ग ए ज मुनिनुं साचुं लक्षण छे. अहीं एकतानी
वात छे. पूर्णतानी वात नथी. चोथे, पांचमे सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान छे. त्यार पछी शुद्धात्माना उग्र
आलंबन वडे आगळ वधे तो प्रथम सातमुं गुणस्थान आवे छे. पछी छठ्ठुं आवे छे. स्वरूपमां अकषाय
परिणति थाय छे ते निश्चयव्रत छे ने जे शुभ परिणाम आवे छे ते व्यवहारव्रत छे. चोथा गुणस्थाने अंशे
स्वरूपाचरण चारित्र छे. देवादिनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन