Atmadharma magazine - Ank 225
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : २४८८
जेम हाथीना दांत बहारना देखावना जुदा छे अने अंदर चाववाना जुदा छे एम व्यवहारनयनुं
कथन जुदुं छे, निश्चयनयना कथनथी विरूद्धता सहित छे. जो बेउ नय सरखा होय तो तेमना परस्पर
विरूद्धता सहित लक्षण केम रह्या छे.
प्रश्न:–शास्त्रमां सीधुं कथन न करतां आनाथी आनुं ग्रहण–त्याग–रक्षण थाय एम केम लख्युं छे?
उत्तर:–लखे कोण, बोले कोण मात्र ए जातनी ईच्छा हती, जो वाणी अने लखाण थाय तो ईच्छा
आदिने उपचारथी कारण कहेवाय. खरेखर तो जीवथी, ईच्छाथी, शब्दोनी के शरीरनी क्रिया थई नथी पण
पुद्गळथी ज थई छे एम निश्चयनयथी खरो अर्थ जाणो तो निमित्तना व्यवहार कथनने–“एनो अर्थ एम
नथी पण निमित्तादि बताववा माटे उपचारथी तेम कह्युं छे” एम व्यवहारनुं जाणवुं व्यवहारे साचुं गणाय
पण तेनो अर्थ व्यवहारथी परनुं कांई करी शकाय छे एवो थतो नथी.
एक आकाश क्षेत्रे परस्पर अवगाह संबंध बताववा आत्माने मूर्त्तिक कह्यो, नर, नारक, स्त्री,
कोळोधोळो कह्यो पण आत्मा मूर्तिक अथवा शरीररूपे कोई रीते थयो नथी छतां व्यवहारनयथी एम कहेवानी
रीत छे. कोई वारंवार प्रश्न पूछे, सांभळे छतां तत्त्व न समजाय तो तेणे शुं करवुं? तेनो जवाब आवे के
पोताना हितरूप प्रयोजन सहित घणा दिवस श्रवण करवा आवो, परिचय करो तो समजाशे तेनो अर्थ शुं के
बीजाथी समजाशे एम नथी पण तमे साची जिज्ञासाथी तत्त्वज्ञाननो अभ्यास करो तो तमाराथी ज
समजाशे. पोते समजे तो ज बीजाने निमित्तमात्र कारण कहेवाय, पछी विनयथी नम्रतामां एम बोलाय के
आपनाथी समज्यो, त्यां एम नथी पण व्यवहारनयनी ए रीत छे.
नेमिनाथ भगवानने पशुओने बंधीखाने देखी वैराग्य आव्यो, रथ पाछो फेरव्यो. तेनो अर्थ एम न
लेवो के संयोगना कारणे जीवमां फेरफार थयो अने परनी क्रिया कोईथी फेरवी शकाय छे, ए तो निमित्तथी
कथन ए रीते आवे छे.
आनाथी समाजमां धर्म प्रभावना थई, आनाथी अटकी, एनो अर्थ के कोईए कोईमां फेरफार
कराव्यो नथी पण तेओनी योग्यता मुजब ज थयुं छे, जोरथी बोलो, धीमेथी बोलो तेनो अर्थ एवी ईच्छा
आवे छे. ईच्छा थई माटे वाणी धीमेथी बोलाय छे एम नथी. त्रणकाळ त्रणलोकमां ईच्छाथी वाणी बोलाती
नथी. वाणी उत्पन्न थाय तो ईच्छाने निमित्त कहेवाय.
आज मारे उपवास करवो छे, आज आटला द्रव्यराखी बाकीनानो त्याग करवो छे. परने ले–त्यागे
कोण? पण आवो राग आवे तेनुं निमित्तथी कथन करनार व्यवहारनयनी ए रीते छे आम हजारो द्रष्टांतथी
व्यवहारनय असत्य अर्थने बतावनार छे.
खरेखर तो दरेक पदार्थ पोतापणे टकीने पोताना आधारे पोतानी नवी नवी अवस्थारूपी कार्य
निरंतर कर्या ज करे छे. कोई द्रव्य पोतानी क्रियाथी रहित नथी के बीजानुं करी शके, जो बीजानुं कार्य करे–
करावे तो ते पोतापणे न रहे. कोई परमाणु बीजाने आधीन नथी. शरीर अने तेनी क्रिया एटले तेनी
अवस्थानुं बदलवुं तेनाथी छे बीजाने आधीन नथी. जीव अजीव दरेक निरालंबी तत्त्व छे कोईना आधारे
नथी छतां कहेवुं ते कथनमात्र व्यवहार छे.
तीर्थंकर भगवान गृहस्थदशामां हता तेमणे वस्त्र छोडया, आहार छोडयो, आहार लीधो ए बधा
व्यवहार कथन असद्भूत उपचारथी छे. तेने खरेखर मानी ले तो स्वतंत्र द्रव्यनो निषेध थाय,
वीतरागतानो वैरी थाय छे.
संयोग अने शरीरनी क्रियामां कर्ता, भोक्तापणुं स्वामीपणुं अज्ञानथी मान्युं हतुं, शुभाशुभ रागने
कर्तव्य मानतो हतो, भेदविज्ञानद्वारा भान कर्युं के दरेक द्रव्य त्रिकाळ परथी भिन्न अने पोतानी सर्वशक्तिथी
पोतामां परिपूर्ण छे. हुं देहादिनो कर्ताभोक्ता के स्वामी नथी, हुं तो त्रिकाळ ज्ञानानंदमय आत्मा छुं एवो