श्रावण : २४८८ : ११ :
उपरोक्त द्रष्टांत मुजब श्वेतशंख कादव वगेरेनां निमित्तमां होवा छतां पोतानुं श्वेतपणुं छोडतो नथी.
कारण के त्रणेकाळे अबाधित नियम एवो छे के निमित्तवडे कोईने परिणमावी शकातुं ज नथी. एक द्रव्यने
बीजुं द्रव्य अन्यभावरूप करवानुं निमित्त कारण बनी शकतुं नथी. दरेक द्रव्य पोतानी स्वयं शक्तिथी ज
परिवर्तन करे छे. ज्ञानी सम्यग्द्रष्टिने अंतरंगमां नित्य चैतन्यनिधान असंग स्वभावनी द्रष्टि थई छे, तेथी
संयोग अने विकारमां एकत्वबुद्धि, कर्ताबुद्धि छुटी गई छे. एवा जीव चारित्रनी नबळाईने कारणे परद्रव्यो
(सचित–अचित के मिश्र) भोगवे एम व्यवहारे कहेवामां आवे छे, तो पण ते तेनो भोक्ता थतो नथी.
कारण के अंतरंगमांथी परनुं कर्तापणुं भोक्तापणुं छुटी गयुं छे. संयोग तो पूर्वोपार्जित कर्मोना निमित्ते आवे
छे. अने समय पूरो थये पोताने कारणे अळगा थई जाय छे. आम जाणतो ज्ञानी तेनो भोक्ता न थयो तेथी
तेने नवां कर्म पण बंधाता नथी. पूर्वनां पुन्यपापना उदये मळेली सामग्री ज्ञानी भोगवतो देखाय परंतु ए
सामग्री वडे ज्ञानीनी श्रद्धा, अने आंशिक स्थिरता अन्यथा थई जतां नथी. माटे ज ज्ञानीने परद्रव्यवडे बंध
थतो नथी.
प्रश्न:– शुं निमित्त कारण (अर्थात् व्यवहार कारण) असत्य छे?
उत्तर:– निमित्त पर वस्तु छे खरी, परंतु बीजा द्रव्यमां कोई पण प्रकारनो फेरफार कराववा समर्थ
नथी. उपादाननी पोतानी ज शक्ति वडे फेरफार थाय छे. त्यारे एटले के ए फेरफार थती वखते आवो संयोग
हतो, एम ज्ञान कराववा ते संयोगने निमित्त मात्र अर्थात् व्यवहार कारण गणवामां आवे छे. पण खरेखर
कारण ते नथी.
दरेक जीवमां पोतानामां अनंत सवळो पुरूषार्थ करवानी शक्ति छे. अने अनंत अवळाई (ऊंधो
पुरूषार्थ) करवानी योग्यता छे. पण बीजा द्रव्यनुं कंई पण करवानी शक्ति नथी. पुण्य पाप रहित निर्विकार
एक ज्ञायक स्वभावनी श्रद्धामां वर्तता कोई ज्ञानीने नीचली दशामां बाह्य सामग्री घणी होय अने तेने ते
भोगवतो देखाय. पण ते कांई संयोग तेने अज्ञान भावे परिणमावे एम बनतुं नथी. हुं संयोगोने आधीन
छुं. तेम ज्ञानी मानतो नथी. ज्ञानीना अभिप्रायमां एम छे के संयोग अने राग पोतानां काळे आवे अने
नाश थई जाय. नीचली दशामां ज्ञानीने अशुभथी बचवा माटे पूजा, भक्ति, दया–दाननो राग आव्या विना
रहे नहि. परंतु ए रागनी मंदताना भावने ज्ञानी धर्म मानी बेसता नथी. तेमज ज्ञानी–सामग्रीने स्पर्शे,
सूंघे, जुए, एम देखाय. छतां तेनां कारणे तेने अज्ञान के बंध थतां नथी. समस्त परवस्तु अने राग ते
ज्ञानीनुं व्यवहार ज्ञेय छे.
श्री समयसार शास्त्रमां कह्युं छे के एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कंई करी शके नहि. परंतु संयोगी
बुद्धिवाळाने एम देखाय छे के नदीनां प्रवाहने माणस फेरवी शके छे. परंतु खरेखर तो जेमां जे लायकात पडी
छे, ते ज तेना कार्यरूप पोताथी परिणमे छे. पर द्रव्यनी सत्ता तथा तेना कारण कार्य आत्माथी भिन्न छे. तेथी
अज्ञानी के ज्ञानी कोई पर द्रव्यनुं कांई पण करी शके नहि. क्षणिक वृत्ति ऊठे पण ते वृत्ति जेटलो–अने जेवो
आत्मा नथी. आत्मा तो त्रिकाळ ज्ञायक छे. संयोग–अने विकारथी निरपेक्ष पणे आवो त्रिकाळ ज्ञायक ज छुं
एम श्रद्धा करे तो अज्ञानना बधां पक्ष मटी जाय.
भगवाननी वाणी तो शुं अरे! साक्षात् भगवान पण आ आत्माथी परद्रव्य छे. भगवान मिथ्या
श्रद्धाने फेरवीने सम्यक श्रद्धा करावी आपे एम बनतुं नथी. परंतु पात्र जीव पोतानी लायकातथी निर्णय करी
यथार्थ समजे त्यारे भगवाननी वाणी निमित्त कहेवाय. निश्चय द्रष्टिए तो पोतामां सर्वज्ञस्वभावनी सत्तानो
भास थयो त्यारे भगवान आवा छे, एम बहुमाननो भाव आवे अने ते पोताना ज कारणे आवे छे.
भगवान छे माटे मने आवा भाव आवे छे एम ज्ञानी मानतो नथी.
प्रश्न:– अंदरमां मानवुं के गुरुना उपदेशथी लाभ नहि अने बहारमां कहेवुं के “गुरुना उपदेशथी लाभ
थयो, आप न मळ्या होय तो अमारूं शुं थात” ए शुं कपट नथी?