: १२ : आत्मधर्म : २२६
उत्तर:– कार्य तो पोतानी शक्तिनी योग्यताथी थाय छे. पण विनयमां व्यवहारनी भाषानो एवो ज
मेळ होय. “हे गुरु! आपे आत्मा आप्यो” एम व्यवहारमां विनयमय भाषा आवे पण शुं आत्मा आपी
शकाय छे? नहि ज. माटे उपरोक्त कथनमां जरा पण कपट नथी.
दरेक द्रव्यनी पर्याय पोताना कारणे पलटे छे. बीजा कोई निमित्तना कारणे नहि. परद्रव्यनी पर्यायना
फेरफारनां कारणे मारामां अने मारा कारणे परमां फेरफार थई शके छे, एम मानतां बे द्रव्यनी एकता
मानवारूप मिथ्यात्व थाय छे. ए मिथ्या अभिप्राय छोडाववा माटे कह्युं छे के “हे ज्ञानी! परद्रव्यने भोगव,
तेनाथी बंध थतो नथी.” पुन्यपापना उदयकाळे संयोग आवे अने जाय पण तेना कारणे जीवने रागद्वेष के
अज्ञान थई जाय एम बनतुं नथी. आ सिद्धांतने सिद्ध करवा पूज्य आचार्यदेव द्रष्टांत आपी समजावे छे के
शंखसचित–अचित के मिश्र पर द्रव्यने भोगवे छतां तेना कारणे ते काळो थई जतो नथी, वळी ते ज शंख
कादव वगेरे न खातो होय छतां पोतानी श्वेतदशाने छोडी स्वयंमेव काळारूपे परिणमे छे त्यारे ते शंख
पोतानी योग्यताथी ते रूपे थाय छे. तेम आत्मा शुद्ध सत्यार्थद्रष्टि करे तो पण पोतानी शक्तिथी ज करे छे.
अने मिथ्याद्रष्टि करे तो पण पोताथी ज करे छे. बाह्य संयोगोथी नथी करतो. ज्ञानी बाह्य संयोगोने
भोगवतो अथवा नहि भोगवतो अंतरमां पोते ज सम्यग्ज्ञान ध्येयने चुकीने अर्थात् ज्ञायक ज छुं एवी द्रष्टि
छोडीने स्वयंमेव अज्ञानभावे परिणमे छे. संयोगोने कारणे नहि ज.
सर्वत्र निज शक्तिरूप उपादान कारणथी ज कार्य थाय छे. अन्य तो उपचार मात्र छे. ए वस्तु
स्वभावनो विरोध करनारा कहे छे के जडकर्मने ज सर्वत्र अंतरंग कारण लेवुं जोईए. पण एम कहेनारे
स्वाधीन पणे उपादाननी द्रष्टि छोडी छे अने निमित्ताधीन मानवारूप मिथ्याद्रष्टि ग्रहण करी छे तेथी ते सर्वत्र
पराधीन वस्तु मानवा लागे छे. अंतरंगकारणरूप जडकर्म आत्माने रखडावे छे एम माननार स्वयंकृत
अपराधथी–अशुद्ध उपादानथी आत्मा पोते ज रखडे छे एम नथी मानतो तेथी तेने अनादिनी जे भूल छे ते
चालु रहे छे.
भैया भगवतिदासजी कृत निमित्त उपादानना संवादमां स्पष्ट सिद्ध कर्युं छे के सर्वत्र उपादानथी ज
कार्य थाय छे. निमित्त तो मात्र उपस्थित होय छे.
“केवली अरु मुनिराज के पास रहे बहु लोय,
पै जाकौ सुलटयो धनी, क्षायिक ताको होय.”
अनंतवार साक्षात् केवळी के श्रुत केवळी पासे जीव गयो परंतु पोतानो उपादान सुलटयो नहि तेथी
संसार ज फळ्यो, परंतु जेणे सवळो पुरुषार्थ कर्यो ते जीवे क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट कर्युं.
सर्वज्ञ भगवाननां समोसरणमां मिथ्याद्रष्टि जीव पण होय छे. वाणी काने पडे छे छतां अंतरमां एवो
खोटो अभिप्राय घूंटे छे के जड कर्म के बाह्य संयोगोने कारणे आत्मा रखडे छे. आवी तेनी मान्यता छे. तेथी
ए मान्यता पोषाय एवा अभिप्राय बांधे छे; ते ज जीव ज्यारे भेद विज्ञान वडे स्वयंज्ञानी थाय छे त्यारे
एम माने छे के पोतानो स्वभाव तो रागादि रहित निर्मळ ज्ञायक पणे परिणमवानो छे. जीव ज्ञानी के
अज्ञानी स्वयं थाय छे. कोई पर वडे थतो नथी. जीव ज्यारे अज्ञानभावे परिणमे छे त्यारे तेने पोताना
अपराधथी बंध थाय छे परना कारणे (–निमित्तना कारणे) नहि ज.
अज्ञानी माने छे के “जीव जड कर्मने बांधे छे. अने जेवा बांध्या होय तेवो उदय आवे छे अने जेवो
उदय आवे एवो विकार करवो पडे.” परंतु आ मान्यता खोटी छे. आवी पराधीनता त्रण काळमां छे ज
नहि. जीवने विकार थाय त्यारे कर्म पोतानी शक्तिथी पोताना कारणे बंधाय एटलुं खरुं, परंतु उदय आवे
त्यारे विकार करवो पडे एम बनतुं नथी. भेदज्ञानवडे आत्मामां शुद्धता प्रगट करवानो पुरुषार्थ करे तो
कर्मनो उदय निमित्त न थातां, ते ज्ञानमां ज्ञेय पणे जणाय छे. माटे एम सिद्ध थयुं के उदय आवे ते उदयनां
कारणे छे. अज्ञानी आत्मा ते समये ते पोतानी योग्यताना–प्रमाणमां विकार करे छे. पण उदय होय ते मुजब
विकार करवो पडे एम नथी.
जीव स्वयं पोतानी भुलथी अपराधी अने भूल भांगे तो निरपराधी थाय छे परंतु कर्मनां उदयथी
अप–