Atmadharma magazine - Ank 227
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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भादरवा : २४८८ : ९ :
एवा त्रिकाळी स्वभावनी महत्ता अने क्षणिक विभावनी तुच्छता वडे चैतन्यध्रुवधाम अखंड एक
ज्ञायकभावमयपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी तेने निर्जरा थाय छे.
मूळगाथामां दोषने–सर्व विभावधर्मने गोपवे छे एम कह्युं हतुं, अहीं टीकामां अस्तिथी निर्मळता
शुद्धिनी वृद्धिथी उपबृंहण कहेल छे.
जेने वर्तमान विभाव अने त्रिकाळी स्वभावनुं भेदज्ञान थयुं छे, शुभाशुभ वृत्ति ऊठे ते मारी चीज
नथी. अंतरमां अनंतज्ञान, दर्शन, आनंद, वीर्यशक्ति छे ते मारुं स्व छे. एवा अनंतगुणनिधान स्वरूपने जे
जाणे ते ज्ञानी छे. आत्मामां एकाग्र थई स्वने पकडवानी ताकात सहित जे प्रगट थाय छे ए ज्ञाननी
पर्यायने सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे.
सम्यग्द्रष्टिए स्वसन्मुखज्ञानवडे अनंत गुणना पिंडरूप आत्माने लक्षमां लईने निजशक्तिने
अंतरमां वाळी छे तेथी निर्मळ पर्याय शक्ति वधती जाय छे, तेने निर्जरा कहे छे. उपवासनी संख्याना
आधारे निर्जरा नथी पण परिणाम अनुसार निर्जरा छे.
उपयोगमां शुभ–अशुभ होय ते अनुसार बंध छे. ग्रहण–त्यागना विकल्प रहित, ज्ञान दर्शनमय
एकाकार स्थिर उपयोग ते शुद्ध परिणाम छे ते अनुसार निर्जरा छे. नित्य ज्ञानस्वरूपना आश्रये पोतामां
निःशंक थयो ते जीव हित–अहितरूप पोतानाभावोने बराबर जाणे छे. स्वशक्तिने संभाळी सावधान थयो
पछी कोईनो डगाव्यो डगे नहि. शक्तिवाननुं जोर–अंदर अभेद स्वभाव उपर होवाथी सम्यग्द्रष्टि
आत्मशक्तिने वधारनार छे. तेथी तेने पर्यायमां नबळाईना कारणे बंध थतो हतो ते थतो नथी.
सर्व भेदने गौण करनार अखंड ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां एवुं जोर वर्ते छे के कोई पण समये चैतन्य
एकरूप स्वभावथी जे विरूद्धभाव तेनो आदर थवा देतो नथी, तेमज स्वसन्मुखज्ञातापणानी धीरजमां
सावधान रहे छे तेथी पूर्वे अज्ञानदशामां जे पोताने भूली अंशमां शुभाशुभरागमां पोतापणुं मानतो तेथी
बंध थतो हतो ते थतो नथी.
द्रष्टि बदली के हुं क्षणिक नबळाई रागद्वेष हर्ष–शोक जेवो ने जेटलो नथी पण बेहद सबळ ज्ञान
स्वभावी छुं, विकारनो नाशक छुं एवा महान सामर्थ्यमय अनंतआत्मबळनुं भान थतां पामरताने कारणे
बंध थतो हतो ते हवे थतो नथी.
द्रव्य–गुण तो सदा परिपूर्ण छे. मात्र पर्यायमां हीनाधिकता छे, तेने गौण करी त्रिकाळी पूर्ण छुं ते
द्रष्टिथी अभेदनो अनुभव करतां सम्यग्दर्शन थाय छे. अकषाय पूर्ण आनंदना लक्षे शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. जे
प्रकारे वस्तु छे तेनुं ते प्रकारे ज्ञान अने माहात्म्य न आवे तो दुःख सागरमां बूडे छे.
चैतन्यमां संकल्प–विकल्पनी जाळ नथी. निश्चय स्वभाव विकल्पथी खाली छे ने शुद्ध स्वभावथी
परिपूर्ण छे. ए स्वभावनी द्रष्टिना बळथी ज्ञानीने शुद्धिनी वृद्धि ने अशुद्धिनी हानिरूप निर्जरा थाय छे.
गा. २३३नो भावार्थ:–
पोताना शुद्ध स्वभावमां लीनता ते सिद्ध भक्ति छे. त्रिकाळी शुद्ध स्वभावमां द्रष्टि जोडी एटले अन्य
ज्ञेयो तरफ द्रष्टि रही नहि, अने तेम थतां शुद्धिनी वृद्धि थाय छे.
आवी वस्तुस्थिति भगवाने जोई छे. ए द्रष्टि जेने प्रगटे तेने निर्जरा छे.
शुद्ध चैतन्य ध्रुव धाम उपर जेनी द्रष्टि छे ते उपगृहन आदि गुण वडे शुद्धिने वधारनारो छे.
वहेवारमां कोई अल्पज्ञतानो दोष देखी तेनो अनादार करी नाखे एवुं धर्मात्मामां होय नहि.
“साचुं सगपण साधर्मी तणुं अवर सवि जंजाळ रे लाल.
भविकजन साचुं सगपण साधर्मी तणुं रे लाल.”
धर्मी जीवने पोताना धर्मनुं बहुमान आव्युं छे ते बीजाना दोष गोपवे, धर्मनी निंदा थाय तेवुं कोई
कार्य ते करे नहि. ते पोताना गुण गोपवे, पण पोताना दोष गोपवे नहि, ते बीजाना दोष गोपवे छे.
सम्यग्द्रष्टिनी भूमिकामां आवता विकल्पो तेनी योग्यताथी विरुद्ध न होय.