: ८ : आत्मधर्म : २२७
सम्यग्द्रष्टि ने निःशंकित आदि–
आठ निश्चय गुणोद्वारा निर्जरा
(समयसार गा. २३२–३३ उपर
पू. गुरुदेवनुं प्रवचन सोनगढ ता. २०–४–६२)
ज्ञानी नीचेनी भूमिकामां होय के ऊंची दशामां होय पण त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावनो ज आदर करनार
होवाथी हेय (त्यागवा योग्य–अशुद्धता) अने उपादेय (–ग्रहण करवा योग्य शुद्धता) ना विवेकमां कदी
मुंझातो नथी, तेथी तेने अमूढ द्रष्टि होय छे.
प्रयोजनभूत तत्त्व जाण्या विना दुःखनो उपाय छोडी, सुखना उपायमां प्रवृत्ति थई शके नहि. साचा
देव, शास्त्र, गुरु, जीवादि नवतत्त्व, छ द्रव्य, सम्यग्दर्शनज्ञान, चारित्ररूप धर्म, द्रव्य, गुण पर्यायनी
स्वतंत्रता, परथी पृथक्ता, स्वभावनी सामर्थता, हित अहितनुं स्वरूप, निमित्त नैमित्तिक संबंध, स्वतंत्र
कर्ता, कर्म, करण, आधार वगेरेनुं स्वरूप–ए प्रयोजन भूत तत्त्व छे. सर्वज्ञ वीतरागे कहेलां ए
जीवादितत्त्वोमां ज्ञानीने अयथार्थ द्रष्टि थती नथी. आ केम हशे? आ बीजी रीते कहे छे तेमां आ साचुं हशे के
ते? एवी परीक्षा करवामां ते मुंजातो नथी. पोताना हित–अहितरूप भावोने बराबर जाणतो नित्य
निशंकता सहित यथार्थद्रष्टिने धारण करे छे, तेथी सम्यग्द्रष्टिजीवने शुद्धि अनुसार निर्जरा थाय छे.
उपगूहन गुणद्वारा ए बताववामां आवे छे के सम्यग्द्रष्टिजीव निश्चयनयथी सिद्धपरमात्मानी भक्ति
सहित छे. पंचास्तिकाय शास्त्र गाथा १६९मां पण सिद्धि भक्तिनुं कथन छे. हुं चैतन्य ज्ञायक बिम्ब छुं तेमां
सम्यक श्रद्धा, ज्ञान अने एकाग्रता ते निश्चय सिद्ध भक्ति छे अने अर्हंत–सिद्ध परमात्माने तेमनां लक्षण
द्वारा जाणी तेमना प्रत्ये बहुमान–विनयरूपभाव थवो ते व्यवहार सिद्ध भक्ति छे.
उपगूहन अथवा उपबृंहण ए सम्यग्दर्शननो गुण एटले के ए पर्याय छे. गुण तो त्रिकाळ अप्रगट
शक्तिरूपे ज होय छे. सम्यग्दर्शन पर्याय छे, गुण नथी. केवळज्ञान पर्याय छे, गुण नथी. एम अहीं निश्चय
सम्यग्दर्शननी साथे रहेला निःशंकित्व, निःकांक्षित्व निर्विचिकित्सा, स्थितिकरण, अमूढता, उपगुहन, वात्सल्य
अने प्रभावना–ए पर्याय छे, गुण नथी. आ आठ प्रकार चारित्र गुणनी पर्यायना भेद छे.
जे सिद्ध भक्ति सहित छे, उपगूहक छे सौ धर्मनो,
चिन्मूति ते ऊपगूहनकर समकित द्रष्टि जाणवो. २२३
चोथा गुणस्थाने त्याग न होय, पण मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषायनो त्याग अने निर्मळ
सम्यक्त्वादिनुं ग्रहण तो होय छे, पण बाह्यमां विशेष त्याग न होय केमके चारित्रमां नबळाईवश
असंयमदशा होवाथी अस्थिरतारूपे चारित्र दोष घणो होय छे, पण तेने करवानी अथवा राखवानी भावना
होती नथी, क््यारे हुं बाह्य–अभ्यतंर निर्ग्रथ थाउं ए भावना होय छे.
गृहस्थदशामां होय एटले संगमां देखातो होय छतां अंतरथी सर्वथी उदास होय छे, एक समयमां परिपूर्ण